June 25th, 2014
भाई राजगोपाल सिंह से मेरा परिचय लगभग पिछले तीस वर्ष से है और हमारे संबंधों की बुनियाद कविता और शायरी थी, परन्तु समय के साथ-साथ यह आधार बढ़ता चला गया और परिचय दोस्ती के रास्ते होता हुआ बिल्कुल अंतरंग हो गया।
भाई राजगोपाल की शायरी, ग़ज़लों-गीतों से तो सभी प्रभावित रहे हैं, परन्तु मुझे इससे बढ़कर जिस बात ने प्रभावित किया, वह थी उनकी सादगी और दोस्तों के लिए सच्ची दोस्ती। भाई राजगोपाल सिंह और श्रवण राही के निस्वार्थ साहित्यिक-पारिवारिक सम्बंधों से हम सब वाक़िफ़ हैं। दोनों की ही प्रवृत्ति में एक सहजता और सादगी थी जो उन्हें भीड़ में सबसे अलग पहचान देती थी। गुड़गाँव के साहित्यिक कार्यक्रमों की वे धुरी रहे हैं। सुरुचि साहित्य कला परिवार के सदस्य न होते हुए भी वे इसके अभिन्न अंग थे। मुझे ऐसी कोई गोष्ठी, कार्यक्रम अथवा कवि-सम्मेलन याद नहीं है, जिसमें उनकी भागीदारी को सुनिश्चित न किया गया हो। सुरुचि परिवार के सभी सदस्य उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान देते थे। मेरा उनसे पारिवारिक संबंध हो गया था और भाभीश्री से लेकर बच्चों तक सबसे सीधी बातचीत, सम्पर्क और संवाद बना हुआ था।
भाई श्रवण राही के जाने के बाद राजगोपाल की बीमारी भी हावी हो गई थी और अनेक बार उन्हें समस्याओं से रू-ब-रू होना पड़ा, परन्तु वे भयभीत कभी नहीं हुए। उन्हें मौत का डर भी कमज़ोर नहीं कर सका और उन्होंने हमेशा हर पल को भरपूर जिया। अपोलो अस्पताल के आईसीयू में जब मैं उनसे मिलने गया और उनका साहस बढ़ाने की दृष्टि से फिल्म ‘कोरा काग़ज़’ का ज़िक्र छेड़ा तो लगभग दस-पन्द्रह मिनिट के स्टे में केवल गुरुदत्त और गुलज़ार की बातें करते रहे। अपने हाथों की कसरत के लिए बार-बार बॉल को दबाते हुए भी उनका ध्यान सृजन की श्रेष्ठता पर टिका हुआ था और मानो वे अस्पताल में नहीं किसी गोष्ठी में शिरक़त कर रहे हों।
जीवन से भरपूर इस महान शायर की सारी शायरी में प्रकृति के ख़ूबसूरत रंग देखने को मिलते हैं। जीवन के प्रति मोह नहीं, विस्तार देखने को मिलता है और रिश्तों की ख़ुश्बू बिखरी हुई मिलती है। राजगोपाल भले ही हमारे बीच नहीं रहे, परन्तु उनका अनुभव हमेशा हमारा हाथ थामे रहेगा और हर पल वे हमारे क़रीब बने रहेंगे।
-मदन साहनी