June 26th, 2014
मैं रहूँ या न रहूँ, मेरा पता रह जाएगा
शाख़ पे यदि एक भी पत्ता हरा रह जाएगा
अपने गीतों को सियासत की ज़ुबां से दूर रख
पँखुरी के वक्ष में काँटा गड़ा रह जाएगा
बो रहा हूँ बीज कुछ सम्वेदनाओं के यहाँ
ख़ुश्बुओं का इक अनोखा सिलसिला रह जाएगा
मैं भी दरिया हूँ मगर सागर मेरी मन्ज़िल नहीं
मैं भी सागर हो गया तो मेरा क्या रह जाएगा
कल बिखर जाऊँगा हरसू, मैं भी शबनम की तरह
किरणें चुन लेंगी मुझे, जग खोजता रह जाएगा
Tags: Confidence, Emotions, Environment, Memories, Nature, Poetry
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on Thursday, June 26th, 2014 at 8:08 pm and is filed under ख़ुशबुओं की यात्रा, ग़ज़ल, चौमास, ज़र्द पत्तों का सफ़र, बरगद ने सब देखा है.
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