घुघती टेर लगाती रहियो — उर्मिल सत्यभूषण

June 25th, 2014

18 मार्च 2014, परिचय का वार्षिक उत्सव सम्मान समारोह -वहीं पता चला ‘राजगोपाल सिंह’ अस्पताल में है, कोमा में है। 2008 में हमने उनको ‘परिचय सम्मान’ से सम्मानित किया था। अभी दिमाग में कौंधा राजगोपाल ठीक हो जाये तो उन्हें ‘राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान’ दिलवाने की कोशिश की जायेगी।

 

दूसरे दिन मैंने राजगोपाल के मोबाइल पर बात करने को कोशिश की। फोन अंकुर ने उठाया और मुझे आश्वस्त किया ‘आंटी, पापा आज ही कोमा से बाहर आये हैं। डॉक्टर ने कहा है ‘अब घर ले जाना’। मैं उनसे आपकी बात ज़रूर करवाऊंगा।

 

उसी शाम को अंकुर का फोन आया। ‘आंटी, पाप से बात करें’।
‘हैलो’
‘हां जी’, उर्मिल जी सुना है बहुत ईनाम बाँटे हैं आपने। मुझे ईनाम कब दोगी?’ स्वर में वही तेवर। बीमारी का आभास नहीं। ‘आपके लिए ईनाम ही ईनाम हैं जनाब।’ अब आप घर वापिस आ जायें। मैं अनिल ‘मीत’ को लेकर आऊंगी’ आपसे मिलने।
‘बड़ी मुश्किल से लौटा हूँ, अभी घर जाऊंगा, अधूरे काम करने हैं।’
‘बिल्कुल, मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। जल्दी मुलाकात होगी।’

 

बातचीत के दौरान राजगोपाल साक्षात् प्रकट हो गए थे और उनका गीत गूंज रहा था कानों में- ‘घुघती टेर लगाती रहियो’। जब कभी मिलने आते थे घर में, मैं इस गीत की फरमाईश ज़रूर करती थी। वे तन्मय होकर सुनाते, डूब जाते। सुनने वाले भी झूम उठते थे। कोई नया गीत लिखते तो मुझे सुनाने आते थे। वे मुझे 1984 में प्रथम बार मिले थे। इंदुकांत आंगिरस लेकर आया था। वे ‘उदधिमंथन’ लेकर आये थे जो पत्रिका उन्होंने ‘अक्षय कुमार जी’ के साथ आरम्भ की थी। उन्होंने मुझे ‘हलका-ए-तश्नगाने-अदब’ से परिचित करवाया था। मेरे घर की छत पर भी काव्य-गोष्ठियाँ होने लगीं थीं।

 

आर के पुरम और आस पास कई कवि-शायर लेखक रहते थे। इन काव्य-गोष्ठियों ने अभिव्यक्ति का मंच देकर हमारे निजी दुखों को तिरोहित करने का काम किया था। राजगोपाल के तीन गीतों से (हाड़ मांस से रचित अंकुर, अमित और आकाश) भी रू-ब-रू हुई और केन्द्र में थी साक्षात् कविता-इनकी सहचरी सविता जो शायद कविता तो नहीं लिखती थी पर इनकी कविता को खाद-पानी देकर सींचती ज़रूर थी।

 

मैं इनके घर-आंगन में जाकर तरो-ताज़ा हो जाती थी। सुख-साधनों के अभाव में भी कविता की सौंधी-सौंधी महक सबको अपना बना लेती थी।
अभी-अभी आँख में झलक आई छत पर बनी इनकी सुन्दर सी बगीची, एक-एक पौधा, एक-एक पत्ता, एक-एक फूल हमारी अगवानी में झूम उठा था, जब वे मुझे छत पर बगिया से मिलाने लेकर गये। इस कवि ने कितना सुंदर संसार रचा है। उनकी एक-एक ग़ज़ल, एक-एक गीत भी वैसा ही शब्द-शब्द तराशा हुआ, सुनाते तो सुर-सरिता में सब तरो-ताज़ा हो जाते।

 

‘मैं रहूँ या न रहूँ मेरा पता रह जायेगा
शाख पर यदि एक भी पत्ता हरा रह जायेगा।’

 

‘तुमने हरापन बाँटा कवि! तुमने प्यार बाँटा राजगोपाल! तुम हमेशा रहोगे, तुम्हारे पेड़ की शाखाओं पर नित बहार खिली रहेगी।’

 

पुश्किन ने कहा था ‘पूरे का पूरा मैं मरूंगा नहीं
पावन वीणा में मेरी आत्मा अक्षुण्ण बची रहेगी।’

 

राख और विगलन के बाद भी गरिमा प्राप्त होती रहेगी मुझे इस धरा पर, जब तक जीवित रहेगा रचनाशील कवि एक भी’ और राजगोपाल, तुम तो हमेशा जीवित रहोगे। कितना कवि परिवार छोड़ा है तुमने! तुम्हारी कविता अब सविता लिखेगी, अंकुर लिखेगा, अमित लिखेगा, आकाश लिखेगा, चिराग जैन लिखेगा। तुम कहीं नहीं गये।

 

तुमने देह त्याग दी पर गीतों में यही रहोगे हमारे आसपास। मैं अनिल को लेकर गई थी आपके घर। तुम तो गूंज रहे थे, सविता के कंठ से, अंकुर के उद्गारों में, आकाश की भावनाओं में। मुझे आपकी फूलों की सुगंध आ रही थी। सारा घर-प्रांगण गमक रहा था आपकी ख़ुशबू से। मेरे और सविता के आँसू मिलकर तुम्हें अर्घ्य दे रहे थे। मैंने उन सबसे वो संस्मरण सांझा किया।

 

जब करवाचौथ का दिन था। आपने मुझे न्यौता दिया था ‘उर्मिल जी, आज ज़रूर आना।’ घर पर काव्यगोष्ठी है। ‘कवि नईम के सम्मान में। मैं गई थी आपके घर। मैं हैरान ‘आपने इतने लोगों को न्यौता दिया और देखा नहीं घर में अतिथ्य के लिए ज़रूरी सामान है कि नहीं।’
करवाचौथ के व्रत में भूखी-प्यासी सविता! आपको पता ही नहीं। गैस सिलेंडर खाली है, घर में सब्ज़ी नहीं, सामान नहीं। छोटे-छोटे बच्चे! मैंने कविता की बजाय सविता पर अधिक ध्यान दिया और स्टोव जलवाया। अंकुर से आलू मंगवाये, उबाले और बनाये। पूरियों के लिए आटा गूंदा और गुंदवाया और कवियों के मज़ाक झेले। ‘उर्मिल क्या कविता लिखेंगी जो रसोई में उलझी पड़ी है।’

 

‘अरे मूर्खों, भूखे पेट कविता नहीं फूटेगी। आह फूटेगी पर उस आह से गान नहीं फूटेंगे।’
आपकी साथिनें, बहनें, मातायें शब्दों में कविता नहीं रचती, कर्म में रचती है, उनको भी सहयोग दो फिर देखना जीवन में कैसे कविता रचती-बसती है।

 

उस दिन कवितायें गूंजने से पहले बादलों ने अपनी गूंज मचा दी। झमाझम बारिश…… बाज़ार से कोई खाद्य सामग्री भी नहीं लाई जा सकती थी। और सबके पेट में कुलबुलाहट शुरू हो गई। बनाने वाले दो और खाने वाले बीस-पच्चीस लोग। उस दिन दो औरतों ने मिलकर जुगाड़ किया बंधुओं की भूख मिटाने के लिए। मैंने शब्दों की कविता को एकदम भुला दिया……

 

जब उनकी क्षुधा शांत हुई तो प्रसन्न-चित्त गीत गूंजने लगे। मैं आटा सने हाथों से कविता सुनाने गई तो विज्ञान व्रत ने कोई व्यंग्य किया जिसको राजगोपाल ने विनम्रता से काटा।’ शाम को बारिश समाप्त होने पर सब घरों को लौट गये। मेरी कविता को प्रशंसा नहीं मिली मुझे अफसोस नहीं, मैंने जीवन की कविता रची मुझे संतुष्टि मिली।

 

राजगोपाल के अप्रतिम प्रेम के कारण ही सविता उसे मुआफ करती आई होगी। अब कविता लिखेगी तभी तो त्राण मिलेगा।
उसकी छटपटाहट को…….. कवि का परिवार और रचना संसार सदा फलता-फूलता रहेगा………

 

बस एक इल्तिज़ा है ‘घुघती टेर लगाती रहियो’ राजगोपाल मेरे लिए वह घुघती ही है जो टेर लगाती है और कविता फूटती है।
ओ मस्त मलंग कवि, बीमारी, परेशानी से निस्संग, मुस्कुराते जीवन की लौ से दमकते-चमकते कवि, तुम्हें शत-शत नमन।

 

-उर्मिल सत्यभूषण
परिचय साहित्य परिषद्

This entry was posted on Wednesday, June 25th, 2014 at 6:14 pm and is filed under अपनों की नज़र में. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

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