June 26th, 2014
हमने ऐसा हादिसा पहले कभी देखा न था
पेड़ थे पेड़ों पे लेकिन एक भी पत्ता न था
ख़ुशनसीबों के यहाँ जलते थे मिट्टी के चिराग़
था अंधेरा किन्तु तब इतना अधिक गहरा न था
तिर रही थी मछलियों की सैकड़ों लाशें मगर
जाल मछुआरों ने नदिया में कोई फेंका न था
आदमी तो आदमी था साँप भी इक बार को
दूध जिसका पी लिया उसको कभी डसता न था
ख़ून अपना ही हमें पानी लगेगा एक दिन
प्यास अपनी इस क़दर बढ़ जाएगी सोचा न था
Tags: Culture, Environment, Memories, Nature, Philosophy, Poetry, Satire
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on Thursday, June 26th, 2014 at 8:37 pm and is filed under ख़ुशबुओं की यात्रा, ग़ज़ल, चौमास, बरगद ने सब देखा है.
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