ये नगर देखना जिस रोज़ भी अपना होगा

June 26th, 2014

ये नगर देखना जिस रोज़ भी अपना होगा
हमको हर शख़्स से बच-बच के गुज़रना होगा

 

हुस्ने-शोहरत भी फ़रेबी है उजाले की तरह
अपने साए से भी हर पल हमें डरना होगा

 

मोतियों की तरह अल्फ़ाज़ ढलेंगे लेकिन
सीप की शक्ल में अहसास को ढलना होगा

 

उम्र भर हमने दरख्तों को गिराया है तो अब
हमको तपते हुए बालू पे भी जलना होगा

 

साँझ से पहले तुझे घर पे पहुँचना है, अगर
छोड़ कर छाँव, कड़ी धूप में चलना होगा

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