June 26th, 2014
ख़ुद को अपने से अलग कर, जब कभी सोचूँ हूँ मैं
दूर तक, बस दूर तक बिखरा हुआ पाऊँ हूँ मैं
लम्हा-लम्हा फूटता है, मुझमें इक ज्वालामुखी
अपने एहसासात की ही आँच में झुलसूँ हूँ मैं
हाँ वो सूरज है मगर मैं भी तो उससे कम नहीं
रोज़ निकलूँ हूँ सुबह को, शाम को डूबूँ हूँ मैं
मुझको ये मालूम है वो एक झोंका था मगर
कैसा पागल हूँ जो अब तक रास्ता देखूँ हूँ मैं
है बग़ावत शायरी, ख़ुद से हो या फिर वक़्त से
एक बाग़ी की तरह हर शे’र से जूझूँ हूँ मैं