कभी तिनके, कभी पत्ते, कभी ख़ुश्बू उड़ा लाई

June 26th, 2014

कभी तिनके, कभी पत्ते, कभी ख़ुश्बू उड़ा लाई
हमारे घर तो आँधी भी कभी तनहा नहीं आई

 

लचकती डाल को ही सबने लचकाया है इस जग में
सबब टहनी के झुकने का ये दुनिया कब समझ पाई

 

मेरा उनसे बिछुड़ना और मिलना ख़्वाब था जैसे
लिपट कर रोई है, ताउम्र मुझसे मेरी तनहाई

 

अजब फ़नकार है, गढ़ता है शक्लें सैकड़ों हर दिन
मगर सूरत कभी कोई किसी से कब है टकराई

 

किसी के मानने, ना मानने से कुछ नहीं होता
उसी का नूर है सब में, उसी की सब में रानाई

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