कभी सपने, कभी आँसू, कभी काजल की तरह

June 26th, 2014

कभी सपने, कभी आँसू, कभी काजल की तरह
चश्म-दर-चश्म भटकता फिरा बादल की तरह

 

ज़िन्दगी मेरी मरुस्थल है, हर इक बूँद मुझे
रोज़ दौड़ाती रही है किसी पागल की तरह

 

ऐसा लगता है कहीं पास, बहुत पास है तू
सरसराती है हवा जब तेरे आँचल की तरह

 

चन्द रोज़ा हैं ये ख़ुशियाँ, तू इन्हें क़ैद न कर
मुट्ठियों से ये फिसल जाएंगी मख़मल की तरह

 

धूप दुश्मन के भी हिस्से की उठा लेगा अगर
लोग पूजेंगे तुझे गाँव के पीपल की तरह

This entry was posted on Thursday, June 26th, 2014 at 8:56 pm and is filed under ख़ुशबुओं की यात्रा, ग़ज़ल, चौमास, ज़र्द पत्तों का सफ़र, बरगद ने सब देखा है. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

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