June 26th, 2014
आफ़तें क्या कम करेंगी मेरे फ़नपारों की आँच
आँधियाँ अक्सर बढ़ा देती हैं अंगारों की आँच
सोने-चाँदी की क़लम हाथों में जब से आ गई
तब से होती जा रही है कम क़लमकारों की आँच
ज्वारभाटा, कान तो भरता है पर सुनता नहीं
ये समुन्दर जानता है तट के मछुआरों की आँच
रेत के घर थे मगर शालीन थे, सम्भ्रांत थे
अब सहन होती नहीं है पक्की दीवारों की आँच
काठ के और जीते-जगते आदमी मे फ़र्क़ है
आ गया मौसम करो कुछ तेज़ अंगारों की आँच