झूठा ही सही फिर भी ये श्रम टूट न जाये

June 26th, 2014

झूठा ही सही फिर भी ये श्रम टूट न जाये
धरती से जुड़े रहने का भ्रम टूट न जाये

 

इस देह से बाहर तू कभी आ नहीं सकता
जब तक तेरे भीतर का अहम् टूट न जाये

 

जीवन के कटु सत्य की ताबीर हैं लहरें
बन-बन के बिखरने का ये क्रम टूट न जाये

 

अम्बर कभी धरती से मिला है, न मिलेगा
पर डूबते मंज़र का ये भ्रम टूट न जाये

 

आज़ाद परिन्दे की तरह रोज़ उड़ूंगा
जब तक मेरी परवाज़ का दम टूट न जाये

This entry was posted on Thursday, June 26th, 2014 at 9:15 pm and is filed under ग़ज़ल, ज़र्द पत्तों का सफ़र. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

Leave a Reply