जाने कैसे-कैसे डर लगने लगे हैं

June 26th, 2014

जाने कैसे-कैसे डर लगने लगे हैं
क़ैदखाने अपने घर लगने लगे हैं

 

अम्न की चर्चा है जब से शहर में
सहमे-सहमे से बशर लगने लगे हैं

 

फड़फड़ाते हैं परिन्दे क़ैद में
बोझ उनको अपने पर लगने लगे हैं

 

रौनक़ें चेहरों की जाने क्या हुईं
हादिसों के पोस्टर लगने लगे हैं

 

पूछने आते रहे जो ख़ैरियत
अब तो वो ही गुप्तचर लगने लगे हैं

This entry was posted on Thursday, June 26th, 2014 at 9:19 pm and is filed under ग़ज़ल, ज़र्द पत्तों का सफ़र. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

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