June 29th, 2014
मेरा और समुद्र का, इक जैसा इतिहास
जल ही जल है कंठ तक, फिर भी बुझे न प्यास
बँधे हुए जिस पर कई, रँगों के रूमाल
हरी-भरी है आज भी, यादों की वह डाल
ताज़ा हैं सब आज भी, सूखे हुए ग़ुलाब
शब्द-शब्द महका रही, सुधियों रची ग़ुलाब
क्या पहले कुछ कम जले, विरहानल में प्राण
फागुन तू भी आ गया, ले फूलों के बाण
महानगर की धूप में, जब भी झुलसे पाँव
याद बहुत आई मुझे, पीपल तेरी छाँव
संकेतों से कर रहे, सबसे मन की बात
झूम-झूम कर बावरे, ये पीपल के पात
मत काटो इस पेड़ को, हो न जाओ यतीम
काल-पात्र है अनलिखा, आँगन का ये नीम