June 30th, 2014
सुब्ह के झोंकों ने कानों में ये कहा मुझको
तमाम रात कोई सोचता रहा मुझको
मैं खो चुका था सब अपना अता-पता लेकिन
मुद्दतों में किसी ने तो ख़त लिखा मुझको
ख़ुशी के अश्क़ छलक आए ख़ुश्क पलकों में
कोई तो आज भी समझे है देवता मुझको
मेरे मिज़ाज़ में ये तल्ख़ियाँ नहीं आतीं
अगरचे मेरी तरह कोई सोचता मुझको
कि इस शहर का कोई भी शरारती पत्थर
किसी भी सम्त से उछला तो आ लगा मुझको