July 1st, 2014
राजगोपाल सिंह की ग़ज़ल एक अटूट आत्मविश्वास और कमाल दर्जे वाली जिजीविषा की एक ऐसी दिलचस्प अभिव्यक्ति है जिसकी गूंज दिलो-दिमाग़ में बड़ी देर तक प्रतिध्वनित होती रहती है। बहुत कम ग़ज़लें मेरे देखने में आई हैं जो एक साथ विचार के धरातल पर झकझोरती भी हों और आनन्द के धरातल पर आत्मसात् भी कर लेती हों।
यह विशेषता राजगोपाल की ग़ज़ल में बहुत है।
यूँ उसने शहर और गाँव दोनों को ही बड़े कलात्मक ढंग से अपनी ग़ज़ल में उतारा लेकिन इस इन्द्रधनुष में जहाँ-जहाँ गाँव की छटा …..उसका रंग …..थोड़ा या ज्यादा जैसा भी झलका है, उस छटा का आनन्द तो बस ऐसा है कि आदमी उसमें समाधिस्थ हो जाए और महसूस ही करता रहे। किसी भी वाद के विवाद से ऊपर इनकी ग़ज़लें विचार के स्तर पर बहुत जगह कोई नई ज़मीन तलाशती नज़र आती हैं तो शिल्प को देख महाकवि मीर के एक मिसरे का वह हिस्सा याद आ जाता है- ‘मोती-से पिरोता है।’
यहाँ एक बात और कहना चाहूंगा, वह इस कारण क्योंकि राजगोपाल को मुशायरों में ग़ज़ल पढ़ते हुए मैंने सुना है। वह तरन्नुम का बादशाह है। इसलिए कहता हूँ, उसे किताब में पढ़ने वाले मेहरबानो, अगर कहीं वह दिखाई दे जाए, तो उसे यूँ ही छोड़िएगा नहीं।
-सत्यपाल सक्सेना
(सन् 1988 में प्रकाशित ‘ज़र्द पत्तों का सफ़र’ संग्रह का फ्लैप)