खुली आँखों का ग़ज़लकार — निश्तर ख़ानकाही

July 1st, 2014

कई अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी कवि भी आज ग़ज़ल की ओर इतना आकर्षित क्यों है? यह सवाल कई बार मेरे सम्मुख आया। कहीं ऐसा तो नहीं कि नए युग की ‘साहित्यिक अराजकता’ के कारण आधुनिक कवि उस मार्ग की तलाश में एक ऐसी विधा की तरफ़ लपक रहा हो, जिसमें अनुशासन भी है और बनावट व सुव्यवस्था भी। क्या यह आज के कवि की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आधुनिक युग ने मानव जीवन को जिस ‘क्षणिक यथार्थ’ की मुट्ठी में सिमट जाने पर बाध्य किया है, उसने ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ा दी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आज के अतिव्यस्त मानव जीवन का स्वाभाविक सम्बंध ‘लम्बे रास्तों’ से कटकर आप ही आप ‘छोटी पगडंडी’ से जुड़ रहा हो, जो संक्षिप्त तो है किन्तु सम्पूर्ण भी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज और व्यक्ति के बिखराव से कवि उस ‘मज़बूत इकाई’ की तरफ़ आकर्षित हो रहे हों, जो ग़ज़ल के एक शेर के रूप में स्थापित होती है। जो भी हो लेकिन ये सवाल उस समय और ज्यादा जवाब-तलब होकर मेरे सम्मुख आए जबकि राजगोपाल सिंह का दूसरा ग़ज़ल-संग्रह ‘ख़ुशबुओं की यात्रा’ देखा।
राजगोपाल का पहला ग़ज़ल संग्रह ‘ज़र्द पत्तों का सफ़र’ मेरी नज़र से गुज़रा था। उस वक्त आगे बढ़ने की जिस ज़द्दो-ज़हद, अपना मार्ग तलाश करने की जिस लगन का एहसास मुझे राजगोपाल के यहाँ हुआ था, इस संग्रह में उनका और विस्तार हुआ है। मैंने ध्यान से उनकी शायरी पढ़ी है और इस अध्ययन के फलस्वरूप जबकि बतौर पाठक अपने आप से यह सवाल किया कि क्या राजगोपाल के यहाँ कोई ऐसी विशेषता है जो उसे दूसरों से अलग करती है? तो मेरा उत्तर था कि हाँ कुछ विशेषताएँ हैं जो राजगोपाल की ग़ज़लों को आज की ‘फ़ैशन ज़दा’ ग़ज़लों से अलग करती हैं।

 

उदाहरण के तौर पर राजगोपाल के अनुभव उनके विज़न के माध्यम से चिन्तन की गहराइयों में डूबकर शेर का सुन्दर रूप धारण करते हैं। विज़न उनके यहां एक शक्तिशाली अस्त्र है, उस कच्ची सामग्री को एकत्र करने का जिससे बाद में उनकी ग़ज़ल का ढँचा तैयार होता है। उनकी आँखें खुली हैं। हर पल, हर क्षण, उनके यहाँ कोरी-कल्पना नहीं है, जिसे खुली आँखों की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि उनके यहाँ ग़ज़ल की सत्यता, रोज़मर्रा के जीवन की सत्यता है, जो कला का सौन्दर्य लेकर शेर के साँचे में ढलती है। मुझे यह विश्वास है कि खुली आँखों वाले कवि का यह रुख़ अभी और विकसित होगा और आगे चलकर वह हिन्दी ग़ज़ल पर अपनी विशेष व्यक्तिगत छाप छोड़ सकेगा।

 

-निश्तर ख़ानकाही
(सन् 1991 में प्रकाशित संग्रह ‘ख़ुशबुओं की यात्रा’ की भूमिका)

This entry was posted on Tuesday, July 1st, 2014 at 9:56 am and is filed under अपनों की नज़र में. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

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