रोज गज़ल का वादा है — अलका सिन्हा

July 9th, 2014

आज के समय में कविता की सादगी को जीने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं। चमक-दमक की इस प्रदर्शनी में गीत-गजल की संवेदनशीलता निरंतर आहत होती रही है। मगर राजगोपाल सिंह जैसे कुछ शायरों ने इन संवेदनाओं को न केवल बरकरार रखा, बल्कि पूरी शिद्दत के साथ जिया भी। राजगोपाल सिंह का शायरी के साथ जो अनुबंध था उसे उन्होंने कुछ इस तरह बयान किया है–
तुम हमें नित नई व्यथा देना,

हम तुम्हें रोज इक गजल देंगे।

 

इसमें संदेह नहीं कि व्यथा और गजल का ये सिलसिला पूरी ईमानदारी के साथ चलता रहा। वे अपनी व्यथाओं से गजलों का गुलदस्ता तैयार करते रहे।
तिरासी-चौरासी की बात होगी, मैं तब कॉलेज में पढ़ रही थी। इंदुकांत आंगिरस के वसंत विहार स्थित आवास पर हुई एक काव्य गोष्ठी में राजगोपाल सिंह से मेरी मुलाकात हुई। गोष्ठी के बाद जब हम लौटने लगे तो रात घिर आई थी। राजगोपाल जी मुझे घर तक छोड़ने आए। यह बड़ा गजब का संयोग था कि मेरे पिताजी और वे एक-दूसरे को देखते ही पहचान गए। उनके पिताजी और मेरे पिताजी एक समय में पड़ोसी होने के साथ-साथ एक ही कार्यालय में कार्यरत होने के कारण एक-दूसरे के साथ पारिवारिक घनिष्ठता से जुड़े थे।

 

उस रोज मेरे पापा और राजगोपाल जी के बीच लंबी बातचीत हुई। उस बातचीत से ही पता चला कि राजगोपाल जी के पिता उनके लेखन के शौक से असंतुष्ट थे। इन्हीं सब के कारण एक रोज राजगोपाल जी घर छोड़ कर चले गए, फिर उन्होंने बहुत संघर्ष किया। मगर हैरानी की बात यह थी कि संघर्ष के इस दौर ने उनकी शख्सियत को खूब मांजा और शायरी को तराश दी। अपने बारे में यह सब बताते हुए उनके चेहरे पर किसी किस्म का पछतावा या संकोच नहीं था, उल्टे उनके भीतर का शायर इस बात से संतुष्ट था कि कलम से उसका रिश्ता भरपूर गहरा था न कि शौकिया। उन्होंने जिंदगी की व्यथाओं का स्वागत किया और अपने शायर जीवन को बादशाहत से बेहतर करार दिया। उन्होंने लिखा—

 

बादशाहों को भी कब मयस्सर हुई,

जिंदगानी जो अहले कलम जी लिए।

 

राजगोपाल सिंह को महफिल-मुशायरों में खूब सुना गया। उनके गीतों में आंचलिकता की मिठास थी तो कविता का तीखापन भी था। बुलेट-प्रूफ मंचों से दिये जाने वाले आजादी के भाषण और नेताओं के सुरक्षा काफिलों पर उन्होंने बहुत साल पहले ही लोकगीत की तर्ज पर कमान कसी थी—
सिपह-सिलार होंगे, तोपें-तलवारें होंगी, आगे-आगे सैनिकों की लंबी कतारें होंगी।

 

रुत रतनारी आएगी,

राजा की सवारी आएगी।

 

इसी तरह नीमा के गीतों ने खूब धूम मचाई थी। बेटियों पर लिखे उनके दोहे तो बार-बार सुने जाते और महिलाएं तो आंसुओं में भीगकर भी इन्हीं की फरमाइश किया करतीं। इसमें शक नहीं कि उन्होंने अपने प्रशंसकों का भरपूर स्नेह पाया, उन्हें बहुत से सम्मान भी हासिल हुए मगर सच तो ये है कि इस खूब से कहीं बहुत अधिक की हकदार थी उनकी शायरी जो मंचीय और गैर-मंचीय दायरों में अटक कर रह गई। उनकी रचना ने मंचों पर बने रहने के लिए कभी भी साहित्यिक गरिमा का उल्लंघन नहीं किया, न ही चुटकलेबाजी का सहारा लिया। वे पूरी गंभीरता से अपना कलाम पढ़ते और हास्य कवि मंचों पर भी उसी गंभीरता से सुने जाते। उनकी शायरी में मुहावरों का प्रयोग तो खास तौर पर उल्लेखनीय है–

 

चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे,

जब ढलेगा तो मुड़के चल देंगे, या फिर

 

कुछ नया करके दिखाना चाहता है आदमी, हाथ पर सरसों उगाना चाहता है आदमी।
इन प्रयोगों को जिस तरह साहित्य जगत में रेखांकित किया जाना चाहिये था, अफसोस है कि उस तरह से उसे नहीं देखा गया।
राजगोपाल जी की खासियत यह भी थी कि वे साहित्य के दांव-पेंचों को देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे, मगर उन्होंने अपने संस्कारों को कभी इससे प्रभावित नहीं होने दिया। संस्कार की बात भी बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें उनके साथ-साथ उनकी पत्नी सविता सिंह का योगदान भी निश्चय ही काबिले तारीफ है। अगर राजगोपाल जी की शायरी व्यथा के साथ किया गया अनुबंध थी तो सविता जी ने भी इस अनुबंध को सर-माथे लगा कर निभाया। बच्चों को भी ऐसी तालीम दी गई कि उन्होंने सदा ही पिता के शायर दोस्तों का सम्मान किया। राजगोपाल जी अपनी धुन में जब जी चाहता, कार्यक्रम के लिए हामी भर देते और बच्चे उसे निभाने में गौरव अनुभव करते। बहुएं आईं तो उन्होंने भी इसका बराबर निर्वाह किया। एक लेखक को जिस तरह के वातावरण की जरूरत होती है, वैसा ही माहौल उनके घर का बना रहा।
राजगोपाल जी अस्पताल में थे। हम मिलने गए तो कहने लगे कि मन में अभी खजाना भरा है जिसे वे लिखकर जाना चाहते हैं। वे काफी कमजोर हो गए थे। उन्हें इस बात का भी बहुत मलाल था कि उन्होंने अपनी पत्नी को पर्याप्त समय नहीं दिया।

 

‘अब घर लौटूंगा तो सविता और बच्चों के साथ समय बिताऊंगा…’ कहते हुए धौल गंगा का पानी उनकी आंखों से बह कर गालों पर ढुलक आया था।
जिन दिनों हम दोनों परिवार पालम में रहा करते थे तब अक्सर ही हम लोग राजगोपाल जी के घर चले जाया करते थे। मुझे याद है, जब राजगोपाल जी ने पालम से नानकपुरा शिफ्ट करने का मन बनाया तब मनु जी (मेरे पति) काफी भावुक हो गए और ‘तेरी याद आई’ शीर्षक से एक गीत लिखा जिसमें राजगोपाल जी के गीतों के माध्यम से उन्हें बराबर याद किया। चाहे वे नानकपुरा में रहे या नजफगढ़ आ गए, उनसे पारिवारिक तौर पर मिलने-जुलने का सिलसिला बना रहा। बच्चों की शादियों से ले कर पोते-पोतियों के होने तक। राजगोपाल जी का बागवानी के साथ भी गहरा लगाव था। कैक्टस की ही कई प्रजातियां उनके नानकपुरा वाले घर में थीं, बाद में नजफगढ़ वाले मकान में भी उन्होंने बड़ी खूबसूरत और कई प्रकार की बोनसाई तैयार कर ली थी। जब हम द्वारका वाले मकान में नए-नए आए थे तो वे हमें नजफगढ़ की नर्सरी ले कर गए जहां से हम बहुत सारे पौधे लाए थे। उनमें अब भी फूल खिलते हैं, उनकी गजलों की किताबें मेरी बुक शैल्फ से झांकती हैं, सीडी में उनके गीत वैसे ही गूंजते हैं, सविता जी का अपनापन, बच्चों-बहुओं का स्नेह-सम्मान वैसे ही झर-झर बरसता रहता है, उनकी मौजूदगी को बारहा महसूस करती हूं…
उनका यह शेर उनकी मौजूदगी को प्रमाणित करता है—

 

मैं रहूं या ना रहूं मेरा पता रह जाएगा
शाख पर गर एक भी पत्ता हरा रह जाएगा…

This entry was posted on Wednesday, July 9th, 2014 at 5:31 am and is filed under अपनों की नज़र में. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

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