Welcome!

हरदिलअज़ीज़ शायर भाई राजगोपाल सिंह — प्रो० रमेश ‘ सिद्धार्थ ‘

July 25th, 2014

सुप्रसिद्ध शायर (स्व०) राजगोपाल सिंह का जन्मदिवस् समारोह 1. 7. 2014 को रशियन सेंटर, परिचय साहित्य परिषद व सुरुचि परिवार के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित किया गया. यह मेरे लिए एक भावों भरा अनुभव रहा.यादों के झरोखे धीरे- धीरे खुलते रहे और अतीतके दृश्य आँखों के सामने तैरने लगे. दरअसल, राजगोपाल सिंह से मेरी मुलाकत1993 में हुई जब वह एक कवि सम्मलेन में महेंद्र शर्मा, सतीश सागर, श्रवण राही आदि के साथ रेवाडी आए थे और उन्होंने अपने काव्य- पाठ से खूब वाह- वाह लूटी थी. महेंद्र शर्मा कॉलेज दिनों में मेरे विद्यार्थी रहे थे. उन्होंने एक विशेष आदरभाव से मेरा उनसे परिचय कराया था. शायद इसीलिए राजगोपाल सिंह ने भी मुझे खास आदर भाव दिया. उस दिन उनकी ग़ज़लों ने मुझे नई गज़ल के एक खास अंदाज़ से परिचित कराया.

 

यूँ तो मैं गज़ल के प्रति विद्यार्थी जीवन से ही आकर्षित था पर राजगोपाल सिंह की दो गज़लों – ‘चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे ‘ व ‘ बरगद ने सब देखा है’ ने मुझे गहराइयों तक छुआ. उनकी अदायागी व तरन्नुम घंटो तक मुझ पर छाये रहे, और मैं उनका मुरीद बन गया. मैं स्वयं भी यदा कदा कवि सम्मेलनों व गोष्ठियों में जाता रहता था सो मुलाकातें भी होती रहीं . वह एक सरल ह्रदय व आडम्बर रहित व्यक्ति थे. इसीलिए अपनी दिनोदिन बढती लोकप्रियता के बावजूद भी वह मुझे ’भाई साहेब’ कह कर पुकारते थे क्योंकि मैं उम्र में बड़ा था. धीरे धीरे आपसी समझ बढ़ने के साथ साथ हमारा पारस्परिक स्नेह व सम्मान भाव बढता गया. चूंकि रिवाडी और दिल्ली में रहने के कारण मिलना बहुत काम हो पाता था फिर भी, हम अक्सर फोन पर संपर्क में रहते थे. महत्वपूर्ण अवसरों व पर्वों व त्योहारों को तो अवश्य ही हम शुभकामनाओं व इधर उधर की ख़बरों का आदान प्रदान कर लेते थे . इसे में अपना दुस्साहस ही कहूँगा कि मैं कभी कभी देर रात भी उन्हें फोन कर उनसे उनकी किसी नई गज़ल के एक दो शेर या दोहों की फरमाइश कर देता था. यह उनकी सादगी और बड़प्पन ही था की वे बहुत स्नेह के साथ मेरा अनुरोध स्वीकार कर लेते. और फिर मुझ से भी कुछ न कुछ अवश्य सुनते यह सिलसिला बरसों से चल रहा था फिर उन्होंने दिल्ली में अपने घर पर मासिक गोष्ठियों का आयोजन शुरू किया जिनमें मैंने एक- दो में भाग भी लिया. शायद जून ’13 से इन गोष्ठियों को उनकी अस्वस्थता के कारण आयोजित नहीं किया जा सका. मैं अक्सर फोन पर उनके हालचाल लेता रहता था और अपनी गज़ल सी डी ‘ कहकशां ‘ के बारे में भी सलाह मशविरा कर लेता था. सर्दियों में एक बार मैंने यूँही फोन पर बातें की तो उन्होंने बताया की कुछ नई ग़ज़लों के शेर मुकम्मल तो हुए है, पर उन्हें किसी दिन धूप निकलेगी तब वे खुद काल करेंगे और सुनायेंगे. यह निश्चय ही उनके जीवट, अपनेपन और स्नेहभाव को दर्शाता है.
इसके लगभग एक माह बाद ही मैं उनको फोन कर पाया तो उनके पुत्र ने बताया की वह ICU में हैं . फिर पता चला कि वह वार्ड में आगये हैं और स्थिति लगभग नियन्त्रण में है. इसके कुछ दिनों बाद एक रात फोन करने पर सूचना मिली कि उन्हें फिर ICU ले जाया जा रहा था. स्वर चिंतित तो थे पर आशाविहीन नहीं. लेकिन अगले ही दिन एक मित्र के माध्यम से पता चला कि भाई राजगोपाल सिंह हमें छोड़ कर चले गए थे. यह एक अप्रत्याशित और गहन आघात था जिससे उबरना मेरे लिए सहज नहीं था. फिर भी ईश्वर कि इच्छा के आगे हम सब को नतमस्तक होना पडता है. अंत में यही कहूँगा –
‘’ हर सांस तेरी जैसे थी यारों की अमानत
ऐ दोस्त, तुझे अश्कों के इनआम मिलेंगे ‘’
प्रो० रमेश ‘ सिद्धार्थ ‘ 744, सेक्टर – 46, गुडगाँव

रोज गज़ल का वादा है — अलका सिन्हा

July 9th, 2014

आज के समय में कविता की सादगी को जीने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं। चमक-दमक की इस प्रदर्शनी में गीत-गजल की संवेदनशीलता निरंतर आहत होती रही है। मगर राजगोपाल सिंह जैसे कुछ शायरों ने इन संवेदनाओं को न केवल बरकरार रखा, बल्कि पूरी शिद्दत के साथ जिया भी। राजगोपाल सिंह का शायरी के साथ जो अनुबंध था उसे उन्होंने कुछ इस तरह बयान किया है–
तुम हमें नित नई व्यथा देना,

हम तुम्हें रोज इक गजल देंगे।

 

इसमें संदेह नहीं कि व्यथा और गजल का ये सिलसिला पूरी ईमानदारी के साथ चलता रहा। वे अपनी व्यथाओं से गजलों का गुलदस्ता तैयार करते रहे।
तिरासी-चौरासी की बात होगी, मैं तब कॉलेज में पढ़ रही थी। इंदुकांत आंगिरस के वसंत विहार स्थित आवास पर हुई एक काव्य गोष्ठी में राजगोपाल सिंह से मेरी मुलाकात हुई। गोष्ठी के बाद जब हम लौटने लगे तो रात घिर आई थी। राजगोपाल जी मुझे घर तक छोड़ने आए। यह बड़ा गजब का संयोग था कि मेरे पिताजी और वे एक-दूसरे को देखते ही पहचान गए। उनके पिताजी और मेरे पिताजी एक समय में पड़ोसी होने के साथ-साथ एक ही कार्यालय में कार्यरत होने के कारण एक-दूसरे के साथ पारिवारिक घनिष्ठता से जुड़े थे।

 

उस रोज मेरे पापा और राजगोपाल जी के बीच लंबी बातचीत हुई। उस बातचीत से ही पता चला कि राजगोपाल जी के पिता उनके लेखन के शौक से असंतुष्ट थे। इन्हीं सब के कारण एक रोज राजगोपाल जी घर छोड़ कर चले गए, फिर उन्होंने बहुत संघर्ष किया। मगर हैरानी की बात यह थी कि संघर्ष के इस दौर ने उनकी शख्सियत को खूब मांजा और शायरी को तराश दी। अपने बारे में यह सब बताते हुए उनके चेहरे पर किसी किस्म का पछतावा या संकोच नहीं था, उल्टे उनके भीतर का शायर इस बात से संतुष्ट था कि कलम से उसका रिश्ता भरपूर गहरा था न कि शौकिया। उन्होंने जिंदगी की व्यथाओं का स्वागत किया और अपने शायर जीवन को बादशाहत से बेहतर करार दिया। उन्होंने लिखा—

 

बादशाहों को भी कब मयस्सर हुई,

जिंदगानी जो अहले कलम जी लिए।

 

राजगोपाल सिंह को महफिल-मुशायरों में खूब सुना गया। उनके गीतों में आंचलिकता की मिठास थी तो कविता का तीखापन भी था। बुलेट-प्रूफ मंचों से दिये जाने वाले आजादी के भाषण और नेताओं के सुरक्षा काफिलों पर उन्होंने बहुत साल पहले ही लोकगीत की तर्ज पर कमान कसी थी—
सिपह-सिलार होंगे, तोपें-तलवारें होंगी, आगे-आगे सैनिकों की लंबी कतारें होंगी।

 

रुत रतनारी आएगी,

राजा की सवारी आएगी।

 

इसी तरह नीमा के गीतों ने खूब धूम मचाई थी। बेटियों पर लिखे उनके दोहे तो बार-बार सुने जाते और महिलाएं तो आंसुओं में भीगकर भी इन्हीं की फरमाइश किया करतीं। इसमें शक नहीं कि उन्होंने अपने प्रशंसकों का भरपूर स्नेह पाया, उन्हें बहुत से सम्मान भी हासिल हुए मगर सच तो ये है कि इस खूब से कहीं बहुत अधिक की हकदार थी उनकी शायरी जो मंचीय और गैर-मंचीय दायरों में अटक कर रह गई। उनकी रचना ने मंचों पर बने रहने के लिए कभी भी साहित्यिक गरिमा का उल्लंघन नहीं किया, न ही चुटकलेबाजी का सहारा लिया। वे पूरी गंभीरता से अपना कलाम पढ़ते और हास्य कवि मंचों पर भी उसी गंभीरता से सुने जाते। उनकी शायरी में मुहावरों का प्रयोग तो खास तौर पर उल्लेखनीय है–

 

चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे,

जब ढलेगा तो मुड़के चल देंगे, या फिर

 

कुछ नया करके दिखाना चाहता है आदमी, हाथ पर सरसों उगाना चाहता है आदमी।
इन प्रयोगों को जिस तरह साहित्य जगत में रेखांकित किया जाना चाहिये था, अफसोस है कि उस तरह से उसे नहीं देखा गया।
राजगोपाल जी की खासियत यह भी थी कि वे साहित्य के दांव-पेंचों को देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे, मगर उन्होंने अपने संस्कारों को कभी इससे प्रभावित नहीं होने दिया। संस्कार की बात भी बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें उनके साथ-साथ उनकी पत्नी सविता सिंह का योगदान भी निश्चय ही काबिले तारीफ है। अगर राजगोपाल जी की शायरी व्यथा के साथ किया गया अनुबंध थी तो सविता जी ने भी इस अनुबंध को सर-माथे लगा कर निभाया। बच्चों को भी ऐसी तालीम दी गई कि उन्होंने सदा ही पिता के शायर दोस्तों का सम्मान किया। राजगोपाल जी अपनी धुन में जब जी चाहता, कार्यक्रम के लिए हामी भर देते और बच्चे उसे निभाने में गौरव अनुभव करते। बहुएं आईं तो उन्होंने भी इसका बराबर निर्वाह किया। एक लेखक को जिस तरह के वातावरण की जरूरत होती है, वैसा ही माहौल उनके घर का बना रहा।
राजगोपाल जी अस्पताल में थे। हम मिलने गए तो कहने लगे कि मन में अभी खजाना भरा है जिसे वे लिखकर जाना चाहते हैं। वे काफी कमजोर हो गए थे। उन्हें इस बात का भी बहुत मलाल था कि उन्होंने अपनी पत्नी को पर्याप्त समय नहीं दिया।

 

‘अब घर लौटूंगा तो सविता और बच्चों के साथ समय बिताऊंगा…’ कहते हुए धौल गंगा का पानी उनकी आंखों से बह कर गालों पर ढुलक आया था।
जिन दिनों हम दोनों परिवार पालम में रहा करते थे तब अक्सर ही हम लोग राजगोपाल जी के घर चले जाया करते थे। मुझे याद है, जब राजगोपाल जी ने पालम से नानकपुरा शिफ्ट करने का मन बनाया तब मनु जी (मेरे पति) काफी भावुक हो गए और ‘तेरी याद आई’ शीर्षक से एक गीत लिखा जिसमें राजगोपाल जी के गीतों के माध्यम से उन्हें बराबर याद किया। चाहे वे नानकपुरा में रहे या नजफगढ़ आ गए, उनसे पारिवारिक तौर पर मिलने-जुलने का सिलसिला बना रहा। बच्चों की शादियों से ले कर पोते-पोतियों के होने तक। राजगोपाल जी का बागवानी के साथ भी गहरा लगाव था। कैक्टस की ही कई प्रजातियां उनके नानकपुरा वाले घर में थीं, बाद में नजफगढ़ वाले मकान में भी उन्होंने बड़ी खूबसूरत और कई प्रकार की बोनसाई तैयार कर ली थी। जब हम द्वारका वाले मकान में नए-नए आए थे तो वे हमें नजफगढ़ की नर्सरी ले कर गए जहां से हम बहुत सारे पौधे लाए थे। उनमें अब भी फूल खिलते हैं, उनकी गजलों की किताबें मेरी बुक शैल्फ से झांकती हैं, सीडी में उनके गीत वैसे ही गूंजते हैं, सविता जी का अपनापन, बच्चों-बहुओं का स्नेह-सम्मान वैसे ही झर-झर बरसता रहता है, उनकी मौजूदगी को बारहा महसूस करती हूं…
उनका यह शेर उनकी मौजूदगी को प्रमाणित करता है—

 

मैं रहूं या ना रहूं मेरा पता रह जाएगा
शाख पर गर एक भी पत्ता हरा रह जाएगा…

खुली आँखों का ग़ज़लकार — निश्तर ख़ानकाही

July 1st, 2014

कई अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी कवि भी आज ग़ज़ल की ओर इतना आकर्षित क्यों है? यह सवाल कई बार मेरे सम्मुख आया। कहीं ऐसा तो नहीं कि नए युग की ‘साहित्यिक अराजकता’ के कारण आधुनिक कवि उस मार्ग की तलाश में एक ऐसी विधा की तरफ़ लपक रहा हो, जिसमें अनुशासन भी है और बनावट व सुव्यवस्था भी। क्या यह आज के कवि की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आधुनिक युग ने मानव जीवन को जिस ‘क्षणिक यथार्थ’ की मुट्ठी में सिमट जाने पर बाध्य किया है, उसने ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ा दी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आज के अतिव्यस्त मानव जीवन का स्वाभाविक सम्बंध ‘लम्बे रास्तों’ से कटकर आप ही आप ‘छोटी पगडंडी’ से जुड़ रहा हो, जो संक्षिप्त तो है किन्तु सम्पूर्ण भी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज और व्यक्ति के बिखराव से कवि उस ‘मज़बूत इकाई’ की तरफ़ आकर्षित हो रहे हों, जो ग़ज़ल के एक शेर के रूप में स्थापित होती है। जो भी हो लेकिन ये सवाल उस समय और ज्यादा जवाब-तलब होकर मेरे सम्मुख आए जबकि राजगोपाल सिंह का दूसरा ग़ज़ल-संग्रह ‘ख़ुशबुओं की यात्रा’ देखा।
राजगोपाल का पहला ग़ज़ल संग्रह ‘ज़र्द पत्तों का सफ़र’ मेरी नज़र से गुज़रा था। उस वक्त आगे बढ़ने की जिस ज़द्दो-ज़हद, अपना मार्ग तलाश करने की जिस लगन का एहसास मुझे राजगोपाल के यहाँ हुआ था, इस संग्रह में उनका और विस्तार हुआ है। मैंने ध्यान से उनकी शायरी पढ़ी है और इस अध्ययन के फलस्वरूप जबकि बतौर पाठक अपने आप से यह सवाल किया कि क्या राजगोपाल के यहाँ कोई ऐसी विशेषता है जो उसे दूसरों से अलग करती है? तो मेरा उत्तर था कि हाँ कुछ विशेषताएँ हैं जो राजगोपाल की ग़ज़लों को आज की ‘फ़ैशन ज़दा’ ग़ज़लों से अलग करती हैं।

 

उदाहरण के तौर पर राजगोपाल के अनुभव उनके विज़न के माध्यम से चिन्तन की गहराइयों में डूबकर शेर का सुन्दर रूप धारण करते हैं। विज़न उनके यहां एक शक्तिशाली अस्त्र है, उस कच्ची सामग्री को एकत्र करने का जिससे बाद में उनकी ग़ज़ल का ढँचा तैयार होता है। उनकी आँखें खुली हैं। हर पल, हर क्षण, उनके यहाँ कोरी-कल्पना नहीं है, जिसे खुली आँखों की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि उनके यहाँ ग़ज़ल की सत्यता, रोज़मर्रा के जीवन की सत्यता है, जो कला का सौन्दर्य लेकर शेर के साँचे में ढलती है। मुझे यह विश्वास है कि खुली आँखों वाले कवि का यह रुख़ अभी और विकसित होगा और आगे चलकर वह हिन्दी ग़ज़ल पर अपनी विशेष व्यक्तिगत छाप छोड़ सकेगा।

 

-निश्तर ख़ानकाही
(सन् 1991 में प्रकाशित संग्रह ‘ख़ुशबुओं की यात्रा’ की भूमिका)

वह तरन्नुम का बादशाह है — सत्यपाल सक्सेना

July 1st, 2014

राजगोपाल सिंह की ग़ज़ल एक अटूट आत्मविश्वास और कमाल दर्जे वाली जिजीविषा की एक ऐसी दिलचस्प अभिव्यक्ति है जिसकी गूंज दिलो-दिमाग़ में बड़ी देर तक प्रतिध्वनित होती रहती है। बहुत कम ग़ज़लें मेरे देखने में आई हैं जो एक साथ विचार के धरातल पर झकझोरती भी हों और आनन्द के धरातल पर आत्मसात् भी कर लेती हों।
यह विशेषता राजगोपाल की ग़ज़ल में बहुत है।
यूँ उसने शहर और गाँव दोनों को ही बड़े कलात्मक ढंग से अपनी ग़ज़ल में उतारा लेकिन इस इन्द्रधनुष में जहाँ-जहाँ गाँव की छटा …..उसका रंग …..थोड़ा या ज्यादा जैसा भी झलका है, उस छटा का आनन्द तो बस ऐसा है कि आदमी उसमें समाधिस्थ हो जाए और महसूस ही करता रहे। किसी भी वाद के विवाद से ऊपर इनकी ग़ज़लें विचार के स्तर पर बहुत जगह कोई नई ज़मीन तलाशती नज़र आती हैं तो शिल्प को देख महाकवि मीर के एक मिसरे का वह हिस्सा याद आ जाता है- ‘मोती-से पिरोता है।’
यहाँ एक बात और कहना चाहूंगा, वह इस कारण क्योंकि राजगोपाल को मुशायरों में ग़ज़ल पढ़ते हुए मैंने सुना है। वह तरन्नुम का बादशाह है। इसलिए कहता हूँ, उसे किताब में पढ़ने वाले मेहरबानो, अगर कहीं वह दिखाई दे जाए, तो उसे यूँ ही छोड़िएगा नहीं।

 

-सत्यपाल सक्सेना
(सन् 1988 में प्रकाशित ‘ज़र्द पत्तों का सफ़र’ संग्रह का फ्लैप)

संपर्क

June 30th, 2014

चिराग़ जैन (हिंदी संपादक)
chiragblog@gmail.com
+91 9868573612

 

 

 

 

 

अंकुर सिंह (तकनीक प्रबंधक)
imankur@gmail.com
+91 9717976565

 

 

 

 

 

कविता

June 30th, 2014

[wp_rss_multi_importer category=”9″]

ज़िन्दगी के साथ जो रहती हैं सारी उलझनें

June 30th, 2014

ज़िन्दगी के साथ जो रहती हैं सारी उलझनें
कुछ अजानी और कुछ हैं नामधारी उलझनें

 

जितना सुलझाते गए, उतनी उलझती ही गईं
आदमी थक-हार बैठा पर न हारी उलझनें

 

अपनी-अपनी उलझनों में लोग हैं उलझे हुए
है किसे फ़ुर्सत जो सुलझाए तुम्हार उलझनें

 

घर तपोवन थे ये दुनिया स्वर्ग का प्रतिरूप थी
मिल के सुलझाते थे सब जब बारी-बारी उलझनें

 

प्यार की इससे बड़ी पहचान क्या होगी भला
आपको अपनी लगे हैं सब हमारी उलझनें

 

कितने पागल हैं जो डाले घूमते हैं गर्दनों में
शक्ल में फूलों की हम सब भारी-भारी उलझनें

कौन सुनता है यहाँ चुप भी रहो

June 30th, 2014

कौन सुनता है यहाँ चुप भी रहो
काट डालेंगे ज़ुबां चुप भी रहो

 

रहनुमाओं की यहाँ पर भीड़ है
लूट लेंगे कारवां चुप भी रहो

 

इस शहर पर प्रेत मंडराने लगे
बंद कर दो खिड़कियाँ चुप भी रहो

 

हैं बहुत हैरान बच्चे आजकल
टोकती रहती है माँ चुप भी रहो

 

अब कहाँ हैं अहले-फ़न समझेंगे जो
शेर की बारीक़ियाँ, चुप भी रहो

 

मुख़बरी करने लगी है अब ‘समर’
आपकी अपनी ज़ुबां चुप भी रहो

जब भी वो बाहर जाता है

June 30th, 2014

जब भी वो बाहर जाता है
चेहरा घर पर धर जाता है

 

रोज़ सवेरे जी उठता है
रोज़ शाम को मर जाता है

 

हक़ की ख़ातिर लड़ने वाला
नाहक़ में ही मर जाता है

 

जाने क्या देखा है उसने
आहट से ही डर जाता है

पाप बढ़ते जा रहे हैं

June 30th, 2014

पाप बढ़ते जा रहे हैं
पुण्य घटते जा रहे हैं

 

जब से सुविधाएँ बढ़ी हैं
सुख सिमटते जा रहे हैं

 

इसलिए ऋतुएँ ख़फ़ा हैं
पेड़ कटते जा रहे हैं

 

साम्प्रदायिक दलदलों में
लोग धँसते जा रहे हैं

 

घर नज़र आने लगा है
पाँव थकते जा रहे हैं