चढ़ता सूरज डूब गया — रमेश रमन

June 25th, 2014

चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे
जब ढलेगा तो मुड़ के चल देंगे

 

-इन अमर पंक्तियों के रचयिता भाई राजगोपाल सिंह मेरे अभिन्न मित्र थे। हृदय को बहुत पीड़ा होती है, जब अपने अभिन्न को है की जगह था कहने के लिए विवश होना पड़ता है।

 

भाई राजगोपाल सिंह उन सच्चे विचारकों और कवियों में से थे, जो जैसे रचते थे, वैसा ही उनके व्यवहार में था। मेरे गीत संग्रह ‘चाहे जब आ जाना’ का प्रकाशन उनके ही निर्देशन में हुआ और उसका विमोचन भी उन्होंने ही गुड़गाँव में कराया। सही मायनों में तो मेरा प्रायोजक चला गया। उनके साथ मैंने जो जीवन जिया, उस समय की यादें मेरे मन-मस्तिष्क में आज भी जीवंत हैं। और मैं मन ही मन उनसे संवाद के क्षणों को जीकर सिहर उठता हूँ। श्रध्दांजलि के शब्दों को आमंत्रित करना और उनकी अभिव्यक्ति करना बहुत कठिन होता है। उनके साथ बिताया गया हर क्षण अनमोल है।

 

चूमकर आपकी हथेली को
हस्तरेखाएँ हम बदल देंगे

 

ऐसा सिध्दहस्त कवि-गीतकार हमारे बीच नहीं है, सोचकर बहुत पीड़ा होती है। बहुत जल्दी साथ छोड़कर चला गया- यार। जीवन सफ़र में ऐसा बिछोह…. वास्तव में कष्टकारी है। सजल नयनों से ही विदाई दे सकता हूँ।

 

स्वागत गीत रचे बहुतेरे, पर रच न सके हम एक विदाई
सदा रहे हम सँग अँसुअन के, पर हमने मुस्कान ही गाई

 

यही प्रेरणा भाई राजगोपाल से मिली है, जिसे संजो कर रखना ही उनकी आत्मा की शांति के लिए उचित होगा।

 

दीप ने ली जलसमाधि, आरती रह गई अधूरी
ढह गया इक और पीपल, परिक्रमा भी हुई न पूरी

 

कौन कंकर फेंकता है, चुपके-चुपके शांत जल में?
कौन अंतर कर रहा है, रात-दिन और आज-कल में?
कौन सी संजीवनी है, पीर जो होती न बूढ़ी?
ढह गया इक और पीपल, परिक्रमा भी हुई न पूरी

 

वेदना के आगमन पर चेतना चुपचाप क्यों है?
नैन अश्रुजल पियें ना, प्यास को अभिशाप क्यों है?
प्रश्न शैया पर है दुर्लभ, नींद और सपने सिंदूरी।
ढह गया इक और पीपल, परिक्रमा भी हुई न पूरी

 

मौन बैठे हैं मनोरथ, मन ही मन निष्काम से
शेष हैं अभी और तीरथ, बाद इस विश्राम के
शेष जीवन के लिए भी, कामनाएँ हैं ज़रूरी
ढह गया इक और पीपल, परिक्रमा भी हुई न पूरी

 

-रमेश रमन
हरिद्वार

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