Archive for the ‘अपनों की नज़र में’ Category

हरदिलअज़ीज़ शायर भाई राजगोपाल सिंह — प्रो० रमेश ‘ सिद्धार्थ ‘

July 25th, 2014

सुप्रसिद्ध शायर (स्व०) राजगोपाल सिंह का जन्मदिवस् समारोह 1. 7. 2014 को रशियन सेंटर, परिचय साहित्य परिषद व सुरुचि परिवार के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित किया गया. यह मेरे लिए एक भावों भरा अनुभव रहा.यादों के झरोखे धीरे- धीरे खुलते रहे और अतीतके दृश्य आँखों के सामने तैरने लगे. दरअसल, राजगोपाल सिंह से मेरी मुलाकत1993 में हुई जब वह एक कवि सम्मलेन में महेंद्र शर्मा, सतीश सागर, श्रवण राही आदि के साथ रेवाडी आए थे और उन्होंने अपने काव्य- पाठ से खूब वाह- वाह लूटी थी. महेंद्र शर्मा कॉलेज दिनों में मेरे विद्यार्थी रहे थे. उन्होंने एक विशेष आदरभाव से मेरा उनसे परिचय कराया था. शायद इसीलिए राजगोपाल सिंह ने भी मुझे खास आदर भाव दिया. उस दिन उनकी ग़ज़लों ने मुझे नई गज़ल के एक खास अंदाज़ से परिचित कराया.

 

यूँ तो मैं गज़ल के प्रति विद्यार्थी जीवन से ही आकर्षित था पर राजगोपाल सिंह की दो गज़लों – ‘चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे ‘ व ‘ बरगद ने सब देखा है’ ने मुझे गहराइयों तक छुआ. उनकी अदायागी व तरन्नुम घंटो तक मुझ पर छाये रहे, और मैं उनका मुरीद बन गया. मैं स्वयं भी यदा कदा कवि सम्मेलनों व गोष्ठियों में जाता रहता था सो मुलाकातें भी होती रहीं . वह एक सरल ह्रदय व आडम्बर रहित व्यक्ति थे. इसीलिए अपनी दिनोदिन बढती लोकप्रियता के बावजूद भी वह मुझे ’भाई साहेब’ कह कर पुकारते थे क्योंकि मैं उम्र में बड़ा था. धीरे धीरे आपसी समझ बढ़ने के साथ साथ हमारा पारस्परिक स्नेह व सम्मान भाव बढता गया. चूंकि रिवाडी और दिल्ली में रहने के कारण मिलना बहुत काम हो पाता था फिर भी, हम अक्सर फोन पर संपर्क में रहते थे. महत्वपूर्ण अवसरों व पर्वों व त्योहारों को तो अवश्य ही हम शुभकामनाओं व इधर उधर की ख़बरों का आदान प्रदान कर लेते थे . इसे में अपना दुस्साहस ही कहूँगा कि मैं कभी कभी देर रात भी उन्हें फोन कर उनसे उनकी किसी नई गज़ल के एक दो शेर या दोहों की फरमाइश कर देता था. यह उनकी सादगी और बड़प्पन ही था की वे बहुत स्नेह के साथ मेरा अनुरोध स्वीकार कर लेते. और फिर मुझ से भी कुछ न कुछ अवश्य सुनते यह सिलसिला बरसों से चल रहा था फिर उन्होंने दिल्ली में अपने घर पर मासिक गोष्ठियों का आयोजन शुरू किया जिनमें मैंने एक- दो में भाग भी लिया. शायद जून ’13 से इन गोष्ठियों को उनकी अस्वस्थता के कारण आयोजित नहीं किया जा सका. मैं अक्सर फोन पर उनके हालचाल लेता रहता था और अपनी गज़ल सी डी ‘ कहकशां ‘ के बारे में भी सलाह मशविरा कर लेता था. सर्दियों में एक बार मैंने यूँही फोन पर बातें की तो उन्होंने बताया की कुछ नई ग़ज़लों के शेर मुकम्मल तो हुए है, पर उन्हें किसी दिन धूप निकलेगी तब वे खुद काल करेंगे और सुनायेंगे. यह निश्चय ही उनके जीवट, अपनेपन और स्नेहभाव को दर्शाता है.
इसके लगभग एक माह बाद ही मैं उनको फोन कर पाया तो उनके पुत्र ने बताया की वह ICU में हैं . फिर पता चला कि वह वार्ड में आगये हैं और स्थिति लगभग नियन्त्रण में है. इसके कुछ दिनों बाद एक रात फोन करने पर सूचना मिली कि उन्हें फिर ICU ले जाया जा रहा था. स्वर चिंतित तो थे पर आशाविहीन नहीं. लेकिन अगले ही दिन एक मित्र के माध्यम से पता चला कि भाई राजगोपाल सिंह हमें छोड़ कर चले गए थे. यह एक अप्रत्याशित और गहन आघात था जिससे उबरना मेरे लिए सहज नहीं था. फिर भी ईश्वर कि इच्छा के आगे हम सब को नतमस्तक होना पडता है. अंत में यही कहूँगा –
‘’ हर सांस तेरी जैसे थी यारों की अमानत
ऐ दोस्त, तुझे अश्कों के इनआम मिलेंगे ‘’
प्रो० रमेश ‘ सिद्धार्थ ‘ 744, सेक्टर – 46, गुडगाँव

रोज गज़ल का वादा है — अलका सिन्हा

July 9th, 2014

आज के समय में कविता की सादगी को जीने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं। चमक-दमक की इस प्रदर्शनी में गीत-गजल की संवेदनशीलता निरंतर आहत होती रही है। मगर राजगोपाल सिंह जैसे कुछ शायरों ने इन संवेदनाओं को न केवल बरकरार रखा, बल्कि पूरी शिद्दत के साथ जिया भी। राजगोपाल सिंह का शायरी के साथ जो अनुबंध था उसे उन्होंने कुछ इस तरह बयान किया है–
तुम हमें नित नई व्यथा देना,

हम तुम्हें रोज इक गजल देंगे।

 

इसमें संदेह नहीं कि व्यथा और गजल का ये सिलसिला पूरी ईमानदारी के साथ चलता रहा। वे अपनी व्यथाओं से गजलों का गुलदस्ता तैयार करते रहे।
तिरासी-चौरासी की बात होगी, मैं तब कॉलेज में पढ़ रही थी। इंदुकांत आंगिरस के वसंत विहार स्थित आवास पर हुई एक काव्य गोष्ठी में राजगोपाल सिंह से मेरी मुलाकात हुई। गोष्ठी के बाद जब हम लौटने लगे तो रात घिर आई थी। राजगोपाल जी मुझे घर तक छोड़ने आए। यह बड़ा गजब का संयोग था कि मेरे पिताजी और वे एक-दूसरे को देखते ही पहचान गए। उनके पिताजी और मेरे पिताजी एक समय में पड़ोसी होने के साथ-साथ एक ही कार्यालय में कार्यरत होने के कारण एक-दूसरे के साथ पारिवारिक घनिष्ठता से जुड़े थे।

 

उस रोज मेरे पापा और राजगोपाल जी के बीच लंबी बातचीत हुई। उस बातचीत से ही पता चला कि राजगोपाल जी के पिता उनके लेखन के शौक से असंतुष्ट थे। इन्हीं सब के कारण एक रोज राजगोपाल जी घर छोड़ कर चले गए, फिर उन्होंने बहुत संघर्ष किया। मगर हैरानी की बात यह थी कि संघर्ष के इस दौर ने उनकी शख्सियत को खूब मांजा और शायरी को तराश दी। अपने बारे में यह सब बताते हुए उनके चेहरे पर किसी किस्म का पछतावा या संकोच नहीं था, उल्टे उनके भीतर का शायर इस बात से संतुष्ट था कि कलम से उसका रिश्ता भरपूर गहरा था न कि शौकिया। उन्होंने जिंदगी की व्यथाओं का स्वागत किया और अपने शायर जीवन को बादशाहत से बेहतर करार दिया। उन्होंने लिखा—

 

बादशाहों को भी कब मयस्सर हुई,

जिंदगानी जो अहले कलम जी लिए।

 

राजगोपाल सिंह को महफिल-मुशायरों में खूब सुना गया। उनके गीतों में आंचलिकता की मिठास थी तो कविता का तीखापन भी था। बुलेट-प्रूफ मंचों से दिये जाने वाले आजादी के भाषण और नेताओं के सुरक्षा काफिलों पर उन्होंने बहुत साल पहले ही लोकगीत की तर्ज पर कमान कसी थी—
सिपह-सिलार होंगे, तोपें-तलवारें होंगी, आगे-आगे सैनिकों की लंबी कतारें होंगी।

 

रुत रतनारी आएगी,

राजा की सवारी आएगी।

 

इसी तरह नीमा के गीतों ने खूब धूम मचाई थी। बेटियों पर लिखे उनके दोहे तो बार-बार सुने जाते और महिलाएं तो आंसुओं में भीगकर भी इन्हीं की फरमाइश किया करतीं। इसमें शक नहीं कि उन्होंने अपने प्रशंसकों का भरपूर स्नेह पाया, उन्हें बहुत से सम्मान भी हासिल हुए मगर सच तो ये है कि इस खूब से कहीं बहुत अधिक की हकदार थी उनकी शायरी जो मंचीय और गैर-मंचीय दायरों में अटक कर रह गई। उनकी रचना ने मंचों पर बने रहने के लिए कभी भी साहित्यिक गरिमा का उल्लंघन नहीं किया, न ही चुटकलेबाजी का सहारा लिया। वे पूरी गंभीरता से अपना कलाम पढ़ते और हास्य कवि मंचों पर भी उसी गंभीरता से सुने जाते। उनकी शायरी में मुहावरों का प्रयोग तो खास तौर पर उल्लेखनीय है–

 

चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे,

जब ढलेगा तो मुड़के चल देंगे, या फिर

 

कुछ नया करके दिखाना चाहता है आदमी, हाथ पर सरसों उगाना चाहता है आदमी।
इन प्रयोगों को जिस तरह साहित्य जगत में रेखांकित किया जाना चाहिये था, अफसोस है कि उस तरह से उसे नहीं देखा गया।
राजगोपाल जी की खासियत यह भी थी कि वे साहित्य के दांव-पेंचों को देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे, मगर उन्होंने अपने संस्कारों को कभी इससे प्रभावित नहीं होने दिया। संस्कार की बात भी बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें उनके साथ-साथ उनकी पत्नी सविता सिंह का योगदान भी निश्चय ही काबिले तारीफ है। अगर राजगोपाल जी की शायरी व्यथा के साथ किया गया अनुबंध थी तो सविता जी ने भी इस अनुबंध को सर-माथे लगा कर निभाया। बच्चों को भी ऐसी तालीम दी गई कि उन्होंने सदा ही पिता के शायर दोस्तों का सम्मान किया। राजगोपाल जी अपनी धुन में जब जी चाहता, कार्यक्रम के लिए हामी भर देते और बच्चे उसे निभाने में गौरव अनुभव करते। बहुएं आईं तो उन्होंने भी इसका बराबर निर्वाह किया। एक लेखक को जिस तरह के वातावरण की जरूरत होती है, वैसा ही माहौल उनके घर का बना रहा।
राजगोपाल जी अस्पताल में थे। हम मिलने गए तो कहने लगे कि मन में अभी खजाना भरा है जिसे वे लिखकर जाना चाहते हैं। वे काफी कमजोर हो गए थे। उन्हें इस बात का भी बहुत मलाल था कि उन्होंने अपनी पत्नी को पर्याप्त समय नहीं दिया।

 

‘अब घर लौटूंगा तो सविता और बच्चों के साथ समय बिताऊंगा…’ कहते हुए धौल गंगा का पानी उनकी आंखों से बह कर गालों पर ढुलक आया था।
जिन दिनों हम दोनों परिवार पालम में रहा करते थे तब अक्सर ही हम लोग राजगोपाल जी के घर चले जाया करते थे। मुझे याद है, जब राजगोपाल जी ने पालम से नानकपुरा शिफ्ट करने का मन बनाया तब मनु जी (मेरे पति) काफी भावुक हो गए और ‘तेरी याद आई’ शीर्षक से एक गीत लिखा जिसमें राजगोपाल जी के गीतों के माध्यम से उन्हें बराबर याद किया। चाहे वे नानकपुरा में रहे या नजफगढ़ आ गए, उनसे पारिवारिक तौर पर मिलने-जुलने का सिलसिला बना रहा। बच्चों की शादियों से ले कर पोते-पोतियों के होने तक। राजगोपाल जी का बागवानी के साथ भी गहरा लगाव था। कैक्टस की ही कई प्रजातियां उनके नानकपुरा वाले घर में थीं, बाद में नजफगढ़ वाले मकान में भी उन्होंने बड़ी खूबसूरत और कई प्रकार की बोनसाई तैयार कर ली थी। जब हम द्वारका वाले मकान में नए-नए आए थे तो वे हमें नजफगढ़ की नर्सरी ले कर गए जहां से हम बहुत सारे पौधे लाए थे। उनमें अब भी फूल खिलते हैं, उनकी गजलों की किताबें मेरी बुक शैल्फ से झांकती हैं, सीडी में उनके गीत वैसे ही गूंजते हैं, सविता जी का अपनापन, बच्चों-बहुओं का स्नेह-सम्मान वैसे ही झर-झर बरसता रहता है, उनकी मौजूदगी को बारहा महसूस करती हूं…
उनका यह शेर उनकी मौजूदगी को प्रमाणित करता है—

 

मैं रहूं या ना रहूं मेरा पता रह जाएगा
शाख पर गर एक भी पत्ता हरा रह जाएगा…

खुली आँखों का ग़ज़लकार — निश्तर ख़ानकाही

July 1st, 2014

कई अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी कवि भी आज ग़ज़ल की ओर इतना आकर्षित क्यों है? यह सवाल कई बार मेरे सम्मुख आया। कहीं ऐसा तो नहीं कि नए युग की ‘साहित्यिक अराजकता’ के कारण आधुनिक कवि उस मार्ग की तलाश में एक ऐसी विधा की तरफ़ लपक रहा हो, जिसमें अनुशासन भी है और बनावट व सुव्यवस्था भी। क्या यह आज के कवि की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आधुनिक युग ने मानव जीवन को जिस ‘क्षणिक यथार्थ’ की मुट्ठी में सिमट जाने पर बाध्य किया है, उसने ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ा दी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आज के अतिव्यस्त मानव जीवन का स्वाभाविक सम्बंध ‘लम्बे रास्तों’ से कटकर आप ही आप ‘छोटी पगडंडी’ से जुड़ रहा हो, जो संक्षिप्त तो है किन्तु सम्पूर्ण भी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज और व्यक्ति के बिखराव से कवि उस ‘मज़बूत इकाई’ की तरफ़ आकर्षित हो रहे हों, जो ग़ज़ल के एक शेर के रूप में स्थापित होती है। जो भी हो लेकिन ये सवाल उस समय और ज्यादा जवाब-तलब होकर मेरे सम्मुख आए जबकि राजगोपाल सिंह का दूसरा ग़ज़ल-संग्रह ‘ख़ुशबुओं की यात्रा’ देखा।
राजगोपाल का पहला ग़ज़ल संग्रह ‘ज़र्द पत्तों का सफ़र’ मेरी नज़र से गुज़रा था। उस वक्त आगे बढ़ने की जिस ज़द्दो-ज़हद, अपना मार्ग तलाश करने की जिस लगन का एहसास मुझे राजगोपाल के यहाँ हुआ था, इस संग्रह में उनका और विस्तार हुआ है। मैंने ध्यान से उनकी शायरी पढ़ी है और इस अध्ययन के फलस्वरूप जबकि बतौर पाठक अपने आप से यह सवाल किया कि क्या राजगोपाल के यहाँ कोई ऐसी विशेषता है जो उसे दूसरों से अलग करती है? तो मेरा उत्तर था कि हाँ कुछ विशेषताएँ हैं जो राजगोपाल की ग़ज़लों को आज की ‘फ़ैशन ज़दा’ ग़ज़लों से अलग करती हैं।

 

उदाहरण के तौर पर राजगोपाल के अनुभव उनके विज़न के माध्यम से चिन्तन की गहराइयों में डूबकर शेर का सुन्दर रूप धारण करते हैं। विज़न उनके यहां एक शक्तिशाली अस्त्र है, उस कच्ची सामग्री को एकत्र करने का जिससे बाद में उनकी ग़ज़ल का ढँचा तैयार होता है। उनकी आँखें खुली हैं। हर पल, हर क्षण, उनके यहाँ कोरी-कल्पना नहीं है, जिसे खुली आँखों की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि उनके यहाँ ग़ज़ल की सत्यता, रोज़मर्रा के जीवन की सत्यता है, जो कला का सौन्दर्य लेकर शेर के साँचे में ढलती है। मुझे यह विश्वास है कि खुली आँखों वाले कवि का यह रुख़ अभी और विकसित होगा और आगे चलकर वह हिन्दी ग़ज़ल पर अपनी विशेष व्यक्तिगत छाप छोड़ सकेगा।

 

-निश्तर ख़ानकाही
(सन् 1991 में प्रकाशित संग्रह ‘ख़ुशबुओं की यात्रा’ की भूमिका)

वह तरन्नुम का बादशाह है — सत्यपाल सक्सेना

July 1st, 2014

राजगोपाल सिंह की ग़ज़ल एक अटूट आत्मविश्वास और कमाल दर्जे वाली जिजीविषा की एक ऐसी दिलचस्प अभिव्यक्ति है जिसकी गूंज दिलो-दिमाग़ में बड़ी देर तक प्रतिध्वनित होती रहती है। बहुत कम ग़ज़लें मेरे देखने में आई हैं जो एक साथ विचार के धरातल पर झकझोरती भी हों और आनन्द के धरातल पर आत्मसात् भी कर लेती हों।
यह विशेषता राजगोपाल की ग़ज़ल में बहुत है।
यूँ उसने शहर और गाँव दोनों को ही बड़े कलात्मक ढंग से अपनी ग़ज़ल में उतारा लेकिन इस इन्द्रधनुष में जहाँ-जहाँ गाँव की छटा …..उसका रंग …..थोड़ा या ज्यादा जैसा भी झलका है, उस छटा का आनन्द तो बस ऐसा है कि आदमी उसमें समाधिस्थ हो जाए और महसूस ही करता रहे। किसी भी वाद के विवाद से ऊपर इनकी ग़ज़लें विचार के स्तर पर बहुत जगह कोई नई ज़मीन तलाशती नज़र आती हैं तो शिल्प को देख महाकवि मीर के एक मिसरे का वह हिस्सा याद आ जाता है- ‘मोती-से पिरोता है।’
यहाँ एक बात और कहना चाहूंगा, वह इस कारण क्योंकि राजगोपाल को मुशायरों में ग़ज़ल पढ़ते हुए मैंने सुना है। वह तरन्नुम का बादशाह है। इसलिए कहता हूँ, उसे किताब में पढ़ने वाले मेहरबानो, अगर कहीं वह दिखाई दे जाए, तो उसे यूँ ही छोड़िएगा नहीं।

 

-सत्यपाल सक्सेना
(सन् 1988 में प्रकाशित ‘ज़र्द पत्तों का सफ़र’ संग्रह का फ्लैप)

चढ़ता सूरज डूब गया — रमेश रमन

June 25th, 2014

चढ़ते सूरज को लोग जल देंगे
जब ढलेगा तो मुड़ के चल देंगे

 

-इन अमर पंक्तियों के रचयिता भाई राजगोपाल सिंह मेरे अभिन्न मित्र थे। हृदय को बहुत पीड़ा होती है, जब अपने अभिन्न को है की जगह था कहने के लिए विवश होना पड़ता है।

 

भाई राजगोपाल सिंह उन सच्चे विचारकों और कवियों में से थे, जो जैसे रचते थे, वैसा ही उनके व्यवहार में था। मेरे गीत संग्रह ‘चाहे जब आ जाना’ का प्रकाशन उनके ही निर्देशन में हुआ और उसका विमोचन भी उन्होंने ही गुड़गाँव में कराया। सही मायनों में तो मेरा प्रायोजक चला गया। उनके साथ मैंने जो जीवन जिया, उस समय की यादें मेरे मन-मस्तिष्क में आज भी जीवंत हैं। और मैं मन ही मन उनसे संवाद के क्षणों को जीकर सिहर उठता हूँ। श्रध्दांजलि के शब्दों को आमंत्रित करना और उनकी अभिव्यक्ति करना बहुत कठिन होता है। उनके साथ बिताया गया हर क्षण अनमोल है।

 

चूमकर आपकी हथेली को
हस्तरेखाएँ हम बदल देंगे

 

ऐसा सिध्दहस्त कवि-गीतकार हमारे बीच नहीं है, सोचकर बहुत पीड़ा होती है। बहुत जल्दी साथ छोड़कर चला गया- यार। जीवन सफ़र में ऐसा बिछोह…. वास्तव में कष्टकारी है। सजल नयनों से ही विदाई दे सकता हूँ।

 

स्वागत गीत रचे बहुतेरे, पर रच न सके हम एक विदाई
सदा रहे हम सँग अँसुअन के, पर हमने मुस्कान ही गाई

 

यही प्रेरणा भाई राजगोपाल से मिली है, जिसे संजो कर रखना ही उनकी आत्मा की शांति के लिए उचित होगा।

 

दीप ने ली जलसमाधि, आरती रह गई अधूरी
ढह गया इक और पीपल, परिक्रमा भी हुई न पूरी

 

कौन कंकर फेंकता है, चुपके-चुपके शांत जल में?
कौन अंतर कर रहा है, रात-दिन और आज-कल में?
कौन सी संजीवनी है, पीर जो होती न बूढ़ी?
ढह गया इक और पीपल, परिक्रमा भी हुई न पूरी

 

वेदना के आगमन पर चेतना चुपचाप क्यों है?
नैन अश्रुजल पियें ना, प्यास को अभिशाप क्यों है?
प्रश्न शैया पर है दुर्लभ, नींद और सपने सिंदूरी।
ढह गया इक और पीपल, परिक्रमा भी हुई न पूरी

 

मौन बैठे हैं मनोरथ, मन ही मन निष्काम से
शेष हैं अभी और तीरथ, बाद इस विश्राम के
शेष जीवन के लिए भी, कामनाएँ हैं ज़रूरी
ढह गया इक और पीपल, परिक्रमा भी हुई न पूरी

 

-रमेश रमन
हरिद्वार

साहित्य, अदब की दुनिया में एक अनूठा शख्स — लक्ष्मण दुबे

June 25th, 2014

साहित्य, अदब की दुनिया में एक अनूठा शख्स था। जो प्रकृति के सजीव सहचरों यानि कि पेड़-पौधों से बतियाता था, उनकी भाषा समझता था, उनके दुख-दर्द बयान करता था, उसका नाम था -राजगोपाल सिंह।

 

लोग कहते हैं वो कवि था, मैं कहता हूँ- वो प्रकृति का सहचर था। पेड़-पौधों का अंतरंग मित्र था। सोचता हूँ, अब सूरजमुखी, तुलसी, नीम, पीपल, बरगद, बुरांस, घुघती के साथ कौन बातें करेगा। उनका दुख-दर्द कौन बँटाएगा, बताएगा!

 

राजगोपाल जी के जाने से इस इलाक़े में एक असह्य चुप्पी पसर गई है। और हाँ, बेटी के दर्द व दिल चीरने वाली बातें कौन गा-गाकर सुनाएगा?

 

-लक्ष्मण दुबे

गोपाल-सा मन लिए राजगोपाल जी….–डॉ. विष्णु सक्सेना

June 25th, 2014

बात उन दिनों की है जब मंच पर हास्य कविता की बादशाहत मज़बूत होती जा रही थी और गीत-ग़ज़ल मायूस होकर अपने को कमज़ोर प्रदर्शित करने पर उतारू थी। फर्रुख़ाबादा के एक आयोजन में पहली बार मुलाक़ात हुई भाईसाहब से। शिवओम अम्बर जी ने मेरा परिचय कराया। मैं उस वक्त संघर्षशील कवि था और भाईसाहब स्थापित। लेकिन हास्य के प्रादुर्भाव के कारण वो भी संघर्षशील से नज़र आ रहे थे। ख़ुशक़िस्मती से होटल में हम दोनों का कमरा भी एक था। मैंने कमरे में घुसने से पहले उनसे पूछा- ”भाईसाहब! आपको मेरे साथ रुकने में कोई परेशानी तो नहीं?” उन्होंने बड़ी सहजता से उठकर मुझे गले लगाया और मुझे रूम शेयर करने की इज़ाज़त दे दी। मेरे लिये चाय मंगाई और फिर मेरे इतिहास के बारे में जानकर ख़ामोश हो गए।

 

ध्यान रहे, ये मेरी पहली मुलाक़ात थी। रात तक उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की। जब मंच पर पहुँचे तो मैं सहमा हुआ था क्योंकि मंच पर एक से बढ़कर एक कवि मौज़ूद थे। मेरी मानसिक स्थिति देखकर उन्होंने मुझे हिम्मत दी। मैं छोटा था इसलिए मेरा क्रम भी जल्दी आना था। जैसे ही अम्बर जी ने मेरा नाम पुकारा मेरी धड़कन बढ़ गई। उस वक्त आत्मविश्वास की बहुत कमी थी। बड़ी हिम्मत से माइक पर गया। कविता पढ़ी। उस दिन मुझे राजगोपाल जी के अलावा हास्य कवियों ने भी बहुत दाद दी। उस दिन पहली बार उन्होंने मुझे सुना। मेरी कविता और प्रस्तुति देखकर उनकी कोरें गीली हो गईं थीं। मुझे अपने पास बैठा कर बहुत प्यार दिया। कवि-सम्मेलन ख़त्म हुआ तो हम लौटकर होटल में आए तो उन्होंने भावुक होकर कहा कि बेटे तुमको आज सुनकर ये आश्वस्ति तो हो गई कि गीत विधा मंच पर अभी बहुत दिनों तक ज़िन्दा रहेगी। चाहे लोग ग़ज़ल को सुनें या न सुनें।

 

मैंने आप पहली बार देखा कि तुम्हारे गीत को हास्य के बड़े और दिग्गज कवियों ने भी सराहा। अपनी प्रशंसा सुनकर मेरे मन में लड्डू से फूटने लगे। भाईसाहब के प्रति मेरे मन में अगाध श्रध्दा पैदा हो गई। फिर तो बहुत मुलाक़ातें हुईं लेकिन मन में दोनों के भाव और मज़बूत होते गए। एक बार उन्होंने गुड़गाँव के कवि-सम्मेलन में भी मुझे बुलाया था। तब उनके घर जाने का भी सौभाग्य मिला। सबसे छोटे भाई की तरह परिचय कराया करते थे।

 

जब उनके दिवंगत होने का समाचार मिला तो मन बहुत व्यथित हुआ। उन्हें प्रभु ने बहुत जल्दी अपने पास बुला लिया। अभी कुछ दिन और हमारे बीच रहते तो उनसे बहुत सारा प्यार और बहुत कुछ सीखने का अवसर मिलता। वे बड़े ग़ज़लकार और दोहाकार तो थे ही, लेकिन उनकी सहजता और सरलता ने उन्हें बहुत बड़ा बना दिया था। उन्हें मेरी विनम्र श्रध्दांजलि…..

 

– डॉ. विष्णु सक्सेना
ग़ाज़ियाबाद, उ.प्र.
9412277268

घुघती टेर लगाती रहियो — उर्मिल सत्यभूषण

June 25th, 2014

18 मार्च 2014, परिचय का वार्षिक उत्सव सम्मान समारोह -वहीं पता चला ‘राजगोपाल सिंह’ अस्पताल में है, कोमा में है। 2008 में हमने उनको ‘परिचय सम्मान’ से सम्मानित किया था। अभी दिमाग में कौंधा राजगोपाल ठीक हो जाये तो उन्हें ‘राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान’ दिलवाने की कोशिश की जायेगी।

 

दूसरे दिन मैंने राजगोपाल के मोबाइल पर बात करने को कोशिश की। फोन अंकुर ने उठाया और मुझे आश्वस्त किया ‘आंटी, पापा आज ही कोमा से बाहर आये हैं। डॉक्टर ने कहा है ‘अब घर ले जाना’। मैं उनसे आपकी बात ज़रूर करवाऊंगा।

 

उसी शाम को अंकुर का फोन आया। ‘आंटी, पाप से बात करें’।
‘हैलो’
‘हां जी’, उर्मिल जी सुना है बहुत ईनाम बाँटे हैं आपने। मुझे ईनाम कब दोगी?’ स्वर में वही तेवर। बीमारी का आभास नहीं। ‘आपके लिए ईनाम ही ईनाम हैं जनाब।’ अब आप घर वापिस आ जायें। मैं अनिल ‘मीत’ को लेकर आऊंगी’ आपसे मिलने।
‘बड़ी मुश्किल से लौटा हूँ, अभी घर जाऊंगा, अधूरे काम करने हैं।’
‘बिल्कुल, मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। जल्दी मुलाकात होगी।’

 

बातचीत के दौरान राजगोपाल साक्षात् प्रकट हो गए थे और उनका गीत गूंज रहा था कानों में- ‘घुघती टेर लगाती रहियो’। जब कभी मिलने आते थे घर में, मैं इस गीत की फरमाईश ज़रूर करती थी। वे तन्मय होकर सुनाते, डूब जाते। सुनने वाले भी झूम उठते थे। कोई नया गीत लिखते तो मुझे सुनाने आते थे। वे मुझे 1984 में प्रथम बार मिले थे। इंदुकांत आंगिरस लेकर आया था। वे ‘उदधिमंथन’ लेकर आये थे जो पत्रिका उन्होंने ‘अक्षय कुमार जी’ के साथ आरम्भ की थी। उन्होंने मुझे ‘हलका-ए-तश्नगाने-अदब’ से परिचित करवाया था। मेरे घर की छत पर भी काव्य-गोष्ठियाँ होने लगीं थीं।

 

आर के पुरम और आस पास कई कवि-शायर लेखक रहते थे। इन काव्य-गोष्ठियों ने अभिव्यक्ति का मंच देकर हमारे निजी दुखों को तिरोहित करने का काम किया था। राजगोपाल के तीन गीतों से (हाड़ मांस से रचित अंकुर, अमित और आकाश) भी रू-ब-रू हुई और केन्द्र में थी साक्षात् कविता-इनकी सहचरी सविता जो शायद कविता तो नहीं लिखती थी पर इनकी कविता को खाद-पानी देकर सींचती ज़रूर थी।

 

मैं इनके घर-आंगन में जाकर तरो-ताज़ा हो जाती थी। सुख-साधनों के अभाव में भी कविता की सौंधी-सौंधी महक सबको अपना बना लेती थी।
अभी-अभी आँख में झलक आई छत पर बनी इनकी सुन्दर सी बगीची, एक-एक पौधा, एक-एक पत्ता, एक-एक फूल हमारी अगवानी में झूम उठा था, जब वे मुझे छत पर बगिया से मिलाने लेकर गये। इस कवि ने कितना सुंदर संसार रचा है। उनकी एक-एक ग़ज़ल, एक-एक गीत भी वैसा ही शब्द-शब्द तराशा हुआ, सुनाते तो सुर-सरिता में सब तरो-ताज़ा हो जाते।

 

‘मैं रहूँ या न रहूँ मेरा पता रह जायेगा
शाख पर यदि एक भी पत्ता हरा रह जायेगा।’

 

‘तुमने हरापन बाँटा कवि! तुमने प्यार बाँटा राजगोपाल! तुम हमेशा रहोगे, तुम्हारे पेड़ की शाखाओं पर नित बहार खिली रहेगी।’

 

पुश्किन ने कहा था ‘पूरे का पूरा मैं मरूंगा नहीं
पावन वीणा में मेरी आत्मा अक्षुण्ण बची रहेगी।’

 

राख और विगलन के बाद भी गरिमा प्राप्त होती रहेगी मुझे इस धरा पर, जब तक जीवित रहेगा रचनाशील कवि एक भी’ और राजगोपाल, तुम तो हमेशा जीवित रहोगे। कितना कवि परिवार छोड़ा है तुमने! तुम्हारी कविता अब सविता लिखेगी, अंकुर लिखेगा, अमित लिखेगा, आकाश लिखेगा, चिराग जैन लिखेगा। तुम कहीं नहीं गये।

 

तुमने देह त्याग दी पर गीतों में यही रहोगे हमारे आसपास। मैं अनिल को लेकर गई थी आपके घर। तुम तो गूंज रहे थे, सविता के कंठ से, अंकुर के उद्गारों में, आकाश की भावनाओं में। मुझे आपकी फूलों की सुगंध आ रही थी। सारा घर-प्रांगण गमक रहा था आपकी ख़ुशबू से। मेरे और सविता के आँसू मिलकर तुम्हें अर्घ्य दे रहे थे। मैंने उन सबसे वो संस्मरण सांझा किया।

 

जब करवाचौथ का दिन था। आपने मुझे न्यौता दिया था ‘उर्मिल जी, आज ज़रूर आना।’ घर पर काव्यगोष्ठी है। ‘कवि नईम के सम्मान में। मैं गई थी आपके घर। मैं हैरान ‘आपने इतने लोगों को न्यौता दिया और देखा नहीं घर में अतिथ्य के लिए ज़रूरी सामान है कि नहीं।’
करवाचौथ के व्रत में भूखी-प्यासी सविता! आपको पता ही नहीं। गैस सिलेंडर खाली है, घर में सब्ज़ी नहीं, सामान नहीं। छोटे-छोटे बच्चे! मैंने कविता की बजाय सविता पर अधिक ध्यान दिया और स्टोव जलवाया। अंकुर से आलू मंगवाये, उबाले और बनाये। पूरियों के लिए आटा गूंदा और गुंदवाया और कवियों के मज़ाक झेले। ‘उर्मिल क्या कविता लिखेंगी जो रसोई में उलझी पड़ी है।’

 

‘अरे मूर्खों, भूखे पेट कविता नहीं फूटेगी। आह फूटेगी पर उस आह से गान नहीं फूटेंगे।’
आपकी साथिनें, बहनें, मातायें शब्दों में कविता नहीं रचती, कर्म में रचती है, उनको भी सहयोग दो फिर देखना जीवन में कैसे कविता रचती-बसती है।

 

उस दिन कवितायें गूंजने से पहले बादलों ने अपनी गूंज मचा दी। झमाझम बारिश…… बाज़ार से कोई खाद्य सामग्री भी नहीं लाई जा सकती थी। और सबके पेट में कुलबुलाहट शुरू हो गई। बनाने वाले दो और खाने वाले बीस-पच्चीस लोग। उस दिन दो औरतों ने मिलकर जुगाड़ किया बंधुओं की भूख मिटाने के लिए। मैंने शब्दों की कविता को एकदम भुला दिया……

 

जब उनकी क्षुधा शांत हुई तो प्रसन्न-चित्त गीत गूंजने लगे। मैं आटा सने हाथों से कविता सुनाने गई तो विज्ञान व्रत ने कोई व्यंग्य किया जिसको राजगोपाल ने विनम्रता से काटा।’ शाम को बारिश समाप्त होने पर सब घरों को लौट गये। मेरी कविता को प्रशंसा नहीं मिली मुझे अफसोस नहीं, मैंने जीवन की कविता रची मुझे संतुष्टि मिली।

 

राजगोपाल के अप्रतिम प्रेम के कारण ही सविता उसे मुआफ करती आई होगी। अब कविता लिखेगी तभी तो त्राण मिलेगा।
उसकी छटपटाहट को…….. कवि का परिवार और रचना संसार सदा फलता-फूलता रहेगा………

 

बस एक इल्तिज़ा है ‘घुघती टेर लगाती रहियो’ राजगोपाल मेरे लिए वह घुघती ही है जो टेर लगाती है और कविता फूटती है।
ओ मस्त मलंग कवि, बीमारी, परेशानी से निस्संग, मुस्कुराते जीवन की लौ से दमकते-चमकते कवि, तुम्हें शत-शत नमन।

 

-उर्मिल सत्यभूषण
परिचय साहित्य परिषद्

एक बेहतरीन इन्सान, एक दिलकश शायर — मदन साहनी

June 25th, 2014

भाई राजगोपाल सिंह से मेरा परिचय लगभग पिछले तीस वर्ष से है और हमारे संबंधों की बुनियाद कविता और शायरी थी, परन्तु समय के साथ-साथ यह आधार बढ़ता चला गया और परिचय दोस्ती के रास्ते होता हुआ बिल्कुल अंतरंग हो गया।

 

भाई राजगोपाल की शायरी, ग़ज़लों-गीतों से तो सभी प्रभावित रहे हैं, परन्तु मुझे इससे बढ़कर जिस बात ने प्रभावित किया, वह थी उनकी सादगी और दोस्तों के लिए सच्ची दोस्ती। भाई राजगोपाल सिंह और श्रवण राही के निस्वार्थ साहित्यिक-पारिवारिक सम्बंधों से हम सब वाक़िफ़ हैं। दोनों की ही प्रवृत्ति में एक सहजता और सादगी थी जो उन्हें भीड़ में सबसे अलग पहचान देती थी। गुड़गाँव के साहित्यिक कार्यक्रमों की वे धुरी रहे हैं। सुरुचि साहित्य कला परिवार के सदस्य न होते हुए भी वे इसके अभिन्न अंग थे। मुझे ऐसी कोई गोष्ठी, कार्यक्रम अथवा कवि-सम्मेलन याद नहीं है, जिसमें उनकी भागीदारी को सुनिश्चित न किया गया हो। सुरुचि परिवार के सभी सदस्य उन्हें भरपूर प्यार और सम्मान देते थे। मेरा उनसे पारिवारिक संबंध हो गया था और भाभीश्री से लेकर बच्चों तक सबसे सीधी बातचीत, सम्पर्क और संवाद बना हुआ था।

 

भाई श्रवण राही के जाने के बाद राजगोपाल की बीमारी भी हावी हो गई थी और अनेक बार उन्हें समस्याओं से रू-ब-रू होना पड़ा, परन्तु वे भयभीत कभी नहीं हुए। उन्हें मौत का डर भी कमज़ोर नहीं कर सका और उन्होंने हमेशा हर पल को भरपूर जिया। अपोलो अस्पताल के आईसीयू में जब मैं उनसे मिलने गया और उनका साहस बढ़ाने की दृष्टि से फिल्म ‘कोरा काग़ज़’ का ज़िक्र छेड़ा तो लगभग दस-पन्द्रह मिनिट के स्टे में केवल गुरुदत्त और गुलज़ार की बातें करते रहे। अपने हाथों की कसरत के लिए बार-बार बॉल को दबाते हुए भी उनका ध्यान सृजन की श्रेष्ठता पर टिका हुआ था और मानो वे अस्पताल में नहीं किसी गोष्ठी में शिरक़त कर रहे हों।

 

जीवन से भरपूर इस महान शायर की सारी शायरी में प्रकृति के ख़ूबसूरत रंग देखने को मिलते हैं। जीवन के प्रति मोह नहीं, विस्तार देखने को मिलता है और रिश्तों की ख़ुश्बू बिखरी हुई मिलती है। राजगोपाल भले ही हमारे बीच नहीं रहे, परन्तु उनका अनुभव हमेशा हमारा हाथ थामे रहेगा और हर पल वे हमारे क़रीब बने रहेंगे।

-मदन साहनी

तबीयत का शायर — विवेक मिश्रा

June 25th, 2014

गीत की लय और ग़ज़ल की नाज़ुक बयानी के महीन धागे जहाँ बिना कोई गाँठ लगाए एक-दूसरे से जुड़ते हैं। वहीं से उठती हैं कवि राजगोपाल सिंह की रचनाएँ। गीत और ग़ज़ल के पिछले चार दशक के सफ़र में राजगोपाल सिंह ऐसे बरगद के पेड़ हैं, जिनकी छाँव में हरेक गीत और ग़ज़ल सुनने वाला और कहने वाला ज़रूर कुछ पल सुस्ता के आगे बढ़ा है।

 

यूँ तो ग़ज़ल कहने के बारे में बहुत-सी बातें कही और सुनी जाती हैं पर यहाँ मैं वह कहना चाहूंगा जो निश्तर ख़ानकाही ग़ज़ल के विषय में कहते हैं। वे कहते हैं कि जब भी कोई ग़ज़ल संग्रह मेरे हाथ में आता है तो मैं सबसे पहले ग़ज़लों के लिए प्रयोग किए गए क़ाफ़िए देखता हूँ और जानने की क़ोशिश करता हूँ कि ग़ज़लकार क़ाफ़िए को अपना ख़याल दे रहा है या ख़ुद क़ाफ़िए के आगे हाथ जोड़े खड़ा है।

 

अगर इस नज़रिए से राजगोपाल जी की ग़ज़लें सुनी जाएँ तो वे हमें एक ऐसे सफ़र पर ले जाती हैं जिसका अगला स्टेशन कौन-सा होगा; ये अंदाज़ा हम नहीं लगा सकते। या यूँ कहें कि किसी फ़कीर का फ़लसफा है उनकी ग़ज़लें, जो ज़मीन से आसमान को, साकार से निराकार को जोड़ती चलती हैं। उनकी ग़ज़लों में महज़ क़ाफ़िया पैमाई नहीं है। उनकी ग़ज़लें गहरे ख़यालों और सहज क़ाफ़ियों से एक ऐसी झीनी-सी चादर बुनती हुई चलती हैं, जिसको ओढ़ लेने पर दुनिया की हक़ीकत और खुलकर उजागर होती हैं-

 

मौन ओढ़े हैं सभी, तैयारियाँ होंगी ज़रूर

राख के नीचे दबी, चिन्गारियाँ होंगी ज़रूर

आज भी आदम की बेटी, हंटरों की ज़द में है

हर गिलहरी के बदन पर धारियाँ होंगी ज़रूर

 

या

 

यह भी मुमकिन है ये बौनों का नगर हो इसलिए

छोटे दरवाज़ों की ख़ातिर अपना क़द छोटा न कर

 

राजगोपाल सिंह जी ने ग़ज़ल को नए तेवर से सजाया भी, सँवारा भी और ज़रूरत पड़ने पे बड़ी बेतक़ल्लुफ़ी से इसे अपने मुताबिक़ ढाला भी-

 

गिर के आकाश से नट तड़पता रहा

सब बजाते रहे जोश में तालियाँ

मेरे आंगन में ख़ुशियाँ पलीं इस तरह

निर्धनों के यहाँ जिस तरह बेटियाँ

मैं हूँ सूरज, मेरी शायरी धूप है

धूप रोकेंगी क्या काँच की खिड़कियाँ

 

उनके लेखन में हमारी संस्कृति की विरासत है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों से जूझते आदमी की घुटन है और बुराई के सामने सीना तानकर खड़े होने का हौसला है। उनकी ग़ज़लों में कहीं किसी हसीं हमसफ़र से हाथ छूट जाने की कसक है, तो कहीं मन की गहराइयों में करवटें लेते और बार-बार जीवन्त हो उठते गाँव के नुक्कड़ हैं, गाँव की गलियाँ हैं, पुराना पीपल है, बूढ़ा बरगद है और माँ के ऑंसुओं से नम उसका ममता से भरा ऑंचल है। और हम सबके साथ अपने दर्द को मुस्कुराते हुए कहने का अनोखा अंदाज़ भी है-

 

वो भी तो इक सागर था

एक मुक़म्मल प्यास जिया

अधरों पर मधुमास रही

आँखों ने चौमास जिया

 

‘चौमास’ राजगोपाल सिंह जी की ग़ज़लों, गीतों और दोहों का एक ऐसा संग्रह है जिसमें चुन-चुन कर उनकी वे रचनाएँ रखी गई हैं जो शिल्प, कथ्य और भाव की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं और जन गीतों का दर्जा पा चुकी हैं। एक आम आदमी की पीड़ा को उसी के शब्दों में कह कर राजगोपाल सिंह जी आज सच्चे जनकवि बनकर सामने खड़े हैं-

 

न आंगन में किसी के तुलसी

न पिछवाड़े नीम

सूख गए सब ताल-तलैया

हम हो गए यतीम

उनके गीत ढहती भारतीय संस्कृति की विरासत को बचाकर गीतों में संजोकर आने वाली पीढ़ी के सामने एक ऐसा साहित्य रखने की उत्कंठा से भरे हैं, जो सदियों तक भारत के जनमानस पर छाया रहेगा। और एक समय कहा जाएगा कि यदि सच्चा गाँव, सच्चा भारत, सच्चे रिश्तों को देखना हो, उनकी सौंधी गंध पानी हो, तो एक बार जनकवि राजगोपाल सिंह की रचनाओं को पढ़ो। उनकी दुनिया में विचरण करो, तुम्हें भारत की सच्ची झाँकी दिखाई देगी।

-विवेक मिश्रा