तबीयत का शायर — विवेक मिश्रा

June 25th, 2014

गीत की लय और ग़ज़ल की नाज़ुक बयानी के महीन धागे जहाँ बिना कोई गाँठ लगाए एक-दूसरे से जुड़ते हैं। वहीं से उठती हैं कवि राजगोपाल सिंह की रचनाएँ। गीत और ग़ज़ल के पिछले चार दशक के सफ़र में राजगोपाल सिंह ऐसे बरगद के पेड़ हैं, जिनकी छाँव में हरेक गीत और ग़ज़ल सुनने वाला और कहने वाला ज़रूर कुछ पल सुस्ता के आगे बढ़ा है।

 

यूँ तो ग़ज़ल कहने के बारे में बहुत-सी बातें कही और सुनी जाती हैं पर यहाँ मैं वह कहना चाहूंगा जो निश्तर ख़ानकाही ग़ज़ल के विषय में कहते हैं। वे कहते हैं कि जब भी कोई ग़ज़ल संग्रह मेरे हाथ में आता है तो मैं सबसे पहले ग़ज़लों के लिए प्रयोग किए गए क़ाफ़िए देखता हूँ और जानने की क़ोशिश करता हूँ कि ग़ज़लकार क़ाफ़िए को अपना ख़याल दे रहा है या ख़ुद क़ाफ़िए के आगे हाथ जोड़े खड़ा है।

 

अगर इस नज़रिए से राजगोपाल जी की ग़ज़लें सुनी जाएँ तो वे हमें एक ऐसे सफ़र पर ले जाती हैं जिसका अगला स्टेशन कौन-सा होगा; ये अंदाज़ा हम नहीं लगा सकते। या यूँ कहें कि किसी फ़कीर का फ़लसफा है उनकी ग़ज़लें, जो ज़मीन से आसमान को, साकार से निराकार को जोड़ती चलती हैं। उनकी ग़ज़लों में महज़ क़ाफ़िया पैमाई नहीं है। उनकी ग़ज़लें गहरे ख़यालों और सहज क़ाफ़ियों से एक ऐसी झीनी-सी चादर बुनती हुई चलती हैं, जिसको ओढ़ लेने पर दुनिया की हक़ीकत और खुलकर उजागर होती हैं-

 

मौन ओढ़े हैं सभी, तैयारियाँ होंगी ज़रूर

राख के नीचे दबी, चिन्गारियाँ होंगी ज़रूर

आज भी आदम की बेटी, हंटरों की ज़द में है

हर गिलहरी के बदन पर धारियाँ होंगी ज़रूर

 

या

 

यह भी मुमकिन है ये बौनों का नगर हो इसलिए

छोटे दरवाज़ों की ख़ातिर अपना क़द छोटा न कर

 

राजगोपाल सिंह जी ने ग़ज़ल को नए तेवर से सजाया भी, सँवारा भी और ज़रूरत पड़ने पे बड़ी बेतक़ल्लुफ़ी से इसे अपने मुताबिक़ ढाला भी-

 

गिर के आकाश से नट तड़पता रहा

सब बजाते रहे जोश में तालियाँ

मेरे आंगन में ख़ुशियाँ पलीं इस तरह

निर्धनों के यहाँ जिस तरह बेटियाँ

मैं हूँ सूरज, मेरी शायरी धूप है

धूप रोकेंगी क्या काँच की खिड़कियाँ

 

उनके लेखन में हमारी संस्कृति की विरासत है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों से जूझते आदमी की घुटन है और बुराई के सामने सीना तानकर खड़े होने का हौसला है। उनकी ग़ज़लों में कहीं किसी हसीं हमसफ़र से हाथ छूट जाने की कसक है, तो कहीं मन की गहराइयों में करवटें लेते और बार-बार जीवन्त हो उठते गाँव के नुक्कड़ हैं, गाँव की गलियाँ हैं, पुराना पीपल है, बूढ़ा बरगद है और माँ के ऑंसुओं से नम उसका ममता से भरा ऑंचल है। और हम सबके साथ अपने दर्द को मुस्कुराते हुए कहने का अनोखा अंदाज़ भी है-

 

वो भी तो इक सागर था

एक मुक़म्मल प्यास जिया

अधरों पर मधुमास रही

आँखों ने चौमास जिया

 

‘चौमास’ राजगोपाल सिंह जी की ग़ज़लों, गीतों और दोहों का एक ऐसा संग्रह है जिसमें चुन-चुन कर उनकी वे रचनाएँ रखी गई हैं जो शिल्प, कथ्य और भाव की दृष्टि से श्रेष्ठ हैं और जन गीतों का दर्जा पा चुकी हैं। एक आम आदमी की पीड़ा को उसी के शब्दों में कह कर राजगोपाल सिंह जी आज सच्चे जनकवि बनकर सामने खड़े हैं-

 

न आंगन में किसी के तुलसी

न पिछवाड़े नीम

सूख गए सब ताल-तलैया

हम हो गए यतीम

उनके गीत ढहती भारतीय संस्कृति की विरासत को बचाकर गीतों में संजोकर आने वाली पीढ़ी के सामने एक ऐसा साहित्य रखने की उत्कंठा से भरे हैं, जो सदियों तक भारत के जनमानस पर छाया रहेगा। और एक समय कहा जाएगा कि यदि सच्चा गाँव, सच्चा भारत, सच्चे रिश्तों को देखना हो, उनकी सौंधी गंध पानी हो, तो एक बार जनकवि राजगोपाल सिंह की रचनाओं को पढ़ो। उनकी दुनिया में विचरण करो, तुम्हें भारत की सच्ची झाँकी दिखाई देगी।

-विवेक मिश्रा

This entry was posted on Wednesday, June 25th, 2014 at 6:10 pm and is filed under अपनों की नज़र में. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

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