June 29th, 2014
नदियाँ, मीठी बावड़ी, चाँदी जैसी झील
धीरे-धीरे हो गईं, दलदल में तब्दील
धरती से कि किसान से, हुई किसी से चूक
फ़सलें उजड़ीं खेत में, लहकी है बन्दूक
कहाँ नजूमी, ज्योतिषी, पंडित संत फ़क़ीर
बंदूकें अब बाँचती, लोगों की तक़दीर
अमरबेल से फूलते, नित सरमायेदार
निर्धन को ही मारती, महँगाई की मार
आँख खुले तो चाहिये, चाय और अख़बार
बेमानी हैं आँकड़े, चौदह मरे कि चार
जोकर बाज़ीगर हुए, आज यहाँ एकत्र
नौटंकी का खेल है, संसद रूपी सत्र