Archive for the ‘चौमास’ Category

नदियाँ, मीठी बावड़ी, चाँदी जैसी झील

June 29th, 2014

नदियाँ, मीठी बावड़ी, चाँदी जैसी झील
धीरे-धीरे हो गईं, दलदल में तब्दील

 

धरती से कि किसान से, हुई किसी से चूक
फ़सलें उजड़ीं खेत में, लहकी है बन्दूक

 

कहाँ नजूमी, ज्योतिषी, पंडित संत फ़क़ीर
बंदूकें अब बाँचती, लोगों की तक़दीर

 

अमरबेल से फूलते, नित सरमायेदार
निर्धन को ही मारती, महँगाई की मार

 

आँख खुले तो चाहिये, चाय और अख़बार
बेमानी हैं आँकड़े, चौदह मरे कि चार

 

जोकर बाज़ीगर हुए, आज यहाँ एकत्र
नौटंकी का खेल है, संसद रूपी सत्र

मेरा और समुद्र का, इक जैसा इतिहास

June 29th, 2014

मेरा और समुद्र का, इक जैसा इतिहास
जल ही जल है कंठ तक, फिर भी बुझे न प्यास

 

बँधे हुए जिस पर कई, रँगों के रूमाल
हरी-भरी है आज भी, यादों की वह डाल

 

ताज़ा हैं सब आज भी, सूखे हुए ग़ुलाब
शब्द-शब्द महका रही, सुधियों रची ग़ुलाब

 

क्या पहले कुछ कम जले, विरहानल में प्राण
फागुन तू भी आ गया, ले फूलों के बाण

 

महानगर की धूप में, जब भी झुलसे पाँव
याद बहुत आई मुझे, पीपल तेरी छाँव

 

संकेतों से कर रहे, सबसे मन की बात
झूम-झूम कर बावरे, ये पीपल के पात

 

मत काटो इस पेड़ को, हो न जाओ यतीम
काल-पात्र है अनलिखा, आँगन का ये नीम

जिस घर में बिटिया नहीं, वो घर रेगिस्तान

June 29th, 2014

तेरे जैसी ही हुई, मैं शादी के बाद
आती तो होगी तुझे, मिट्ठू मेरी याद

 

चलियो अब सिर तान के, बिटिया चली विदेश
गंगा तट तज आइयो, सब चिंता सब क्लेश

 

ख़ुश्बू हैं ये बाग़ की, रंगों की पहचान
जिस घर में बिटिया नहीं, वो घर रेगिस्तान

 

कैसा रस्म-रिवाज़ है, कैसा है दस्तूर
देश, विदेश बना गया, चुटकी भर सिन्दूर

 

बाबुल अब होगी नहीं, बहन-भाई में जंग
डोर तोड़ अनजान पथ, उड़कर चली पतंग

 

बाबुल तेरे गाँव को, कैसे जाऊँ भूल
रोम-रोम में देह के, रची इसी की धूल

 

बाबुल हमसे हो गयी, आख़िर कैसी भूल
क्रेता की हर शर्त जो, तूने करी क़ुबूल

 

माँ से बढ़कर कुछ नहीं, क्या पैसा, क्या नाम

June 29th, 2014

माँ से बढ़कर कुछ नहीं, क्या पैसा, क्या नाम
चरण छुए और हो गये, तीरथ चारों धाम

 

इनकी बाँहों में बसा, स्वर्ग सरीखा गाँव
बाबूजी इक पेड़ हैं, अम्मा जिसकी छाँव

 

हम तो सोए चैन से, पल-पल देखे ख़्वाब
माँ कितना सोई जगी, इसका नहीं हिसाब

 

आज बहुत निर्धन हुआ, कल तक था धनवान
माँ रूठी तो यूँ लगा, रूठ गया भगवान

 

क्या जाने क्या खोजता, मरुथल में मृगछौन
बाहर बाहर शोर है, भीतर भीतर मौन

कल तक सब पर राज़ था

June 29th, 2014

कल तक सब पर राज़ था, क्या आँगन क्या द्वार
सात भाँवरे ले हुई, सात समन्दर पार

जिस खूँटे से बाँध दो

June 29th, 2014

जिस खूँटे से बाँध दो, उससे ही बँध जाय
बाबुल तेरी लाडली, इक गूंगी सी गाय

दीवारों को पढ़ तनिक

June 29th, 2014

दीवारों को पढ़ तनिक, चौखट से कर बात
माना लम्बी है मगर, कट जायेगी रात

पहाड़ो ठण्डो पानी

June 26th, 2014

ऊँची-नीची राहों को ज़िन्दगी की मापती
लकड़ियों के बोझ से गोरी बाँहें काँपती
टेसू के फूल से अधरों को बाँचती
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

भेड़ों के बीच में खनखनाता बचपन
तकली की धुन पे थिरकता है यौवन
झुके-झुके नयनों से कह दी इक कहानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

पर्वतों के आँचल में बहती हुई धौली
बिन कहे ही जान गयी बिरहन की बोली
कंत नहीं आये आया चैत का महीना
मन को है साल रही घुघती की बानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

शाख़ें हैं झुक आईं, पक गईं खुमानियाँ
प्रियतम सँग बीते क्षण बन गये कहानियाँ
झरनों की रुनझुन में डूबी हुई नीमा
खोज रही खोये हुए प्यार की निशानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

बारहमासो

June 26th, 2014

पर्वतों की छाँव में
झरनों के गाँव में
किरणों की डोर ढलती साँझ को है माप रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

 

फूल्या बुरांस चैत महक उठी फ्यूलड़ी
पिऊ-पिऊ पुकारती बिरहन म्यूलड़ी
सूनी-सूनी आँखों से राहों को ताक रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

 

आड़ुओं की गंध देह में अमीय घोल रही
कुमुदनी मुँदी हुई पाखुरियाँ खोल रही
सुधियों में खोई-खोई भेड़ों को हाँक रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

हो गए यतीम

June 26th, 2014

ना आंगन में किसी के तुलसी, ना पिछवाड़े नीम
सूख गए सब ताल-तलैया, हम हो गए यतीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

नए-नए नित रोग पनपते, नए-नए उपचार
नए चिकित्सक, नई चिकिस्ता, दोनों ही लाचार
धनवंतरि को आँख दिखाते हैं ये नीम-हक़ीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

क्रेडिट कार्ड्स हैं अब जेबों में, बाजू में बालाएँ
गुज़रे कल की बात हुई हैं, सच्ची प्रेम-कथाएँ
स्वयं आनारकली को चिनवाते हैं आज सलीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

गंगा को तज पूजन लागे दूषित पोखर-नाले
बोए बबूल, काट लिए हैं पेड़ सभी फल वाले
बौने क़द वाले भी अब तो लगने लगे लहीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

ललुआ जब से शहर में जाकर सीखा ए बी सी डी
गिटपिट-गिटपिट करता फिरता, सुनता नहीं किसी की
ना काहू से राम-राम ना काहू से रहीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

लक्ष्मण रेखाएँ नातों की अब न किसी को भातीं
चुभने लगा सिंदूर मांग में, चूड़ियाँ गड़-गड़ जातीं
धर्म-कर्म की सीख हुई है बूढ़ों की तालीम
रे भैया हम हो गए यतीम