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घर छोड़ के निकला था जो फिर घर नहीं देखा

June 26th, 2014

घर छोड़ के निकला था जो फिर घर नहीं देखा
ज़िद थी ये परिन्दे की कि अम्बर नहीं देखा

 

जिस ठौर बहे चाहे वो जिस घाट पे ठहरे
जब तक किसी दरिया ने समुन्दर नहीं देखा

 

पारस भी तुझी में है तो पत्थर भी तू ही है
तूने कभी पारस को परख कर नहीं देखा

 

फ़ितरत ही ‘समर’ अपनी तो लहरों की तरह है
माज़ी को कभी हमने पलट कर नहीं देखा