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इच्छा का प्रश्न है न अनिच्छा क प्रश्न है

June 26th, 2014

इच्छा का प्रश्न है न अनिच्छा क प्रश्न है
हर युग में एकलव्य की शिक्षा का प्रश्न है

 

ना राष्ट्र, न समाज, न तहज़ीब का ख़याल
सबके समक्ष अपनी सुरक्षा का प्रश्न है

 

बगुलों का क्या, मिला जो उठाकर वो खा गये
हंसों में ये भी एक परीक्षा का प्रश्न है

 

शब्दों के मोह जाल से उठकर वो लिख सके
कवि के लिये ये अग्नि-परीक्षा का प्रश्न है

 

कब तक मैं पत्थरों को सहूँ कट के भीड़ से
ये मेरे धैर्य, मेरी परीक्षा का प्रश्न है

दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था

June 26th, 2014

दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था
पर्वत भी बह गये वो बहाव बला का था

 

तलवों में किरचें चुभती रहीं जिसकी बार-बार
टूटा हुआ वो आईना मेरी अना का था

 

कुछ बुझ गये हवाओं से डूबे भँवर में कुछ
जलता रहा दीया जो मेरी आस्था का था

 

आँगन में आज तक मेरे ख़ुश्बू उसी की है
एहसास के चमन में वो झोंका हवा का था

 

जब तक थी मन में जलवाफ़िगन दर्द की किरण
मन्दिर वो एक जैसे किसी देवता का था

घर छोड़ के निकला था जो फिर घर नहीं देखा

June 26th, 2014

घर छोड़ के निकला था जो फिर घर नहीं देखा
ज़िद थी ये परिन्दे की कि अम्बर नहीं देखा

 

जिस ठौर बहे चाहे वो जिस घाट पे ठहरे
जब तक किसी दरिया ने समुन्दर नहीं देखा

 

पारस भी तुझी में है तो पत्थर भी तू ही है
तूने कभी पारस को परख कर नहीं देखा

 

फ़ितरत ही ‘समर’ अपनी तो लहरों की तरह है
माज़ी को कभी हमने पलट कर नहीं देखा