Archive for the ‘ग़ज़ल’ Category

ज़िन्दगी के साथ जो रहती हैं सारी उलझनें

June 30th, 2014

ज़िन्दगी के साथ जो रहती हैं सारी उलझनें
कुछ अजानी और कुछ हैं नामधारी उलझनें

 

जितना सुलझाते गए, उतनी उलझती ही गईं
आदमी थक-हार बैठा पर न हारी उलझनें

 

अपनी-अपनी उलझनों में लोग हैं उलझे हुए
है किसे फ़ुर्सत जो सुलझाए तुम्हार उलझनें

 

घर तपोवन थे ये दुनिया स्वर्ग का प्रतिरूप थी
मिल के सुलझाते थे सब जब बारी-बारी उलझनें

 

प्यार की इससे बड़ी पहचान क्या होगी भला
आपको अपनी लगे हैं सब हमारी उलझनें

 

कितने पागल हैं जो डाले घूमते हैं गर्दनों में
शक्ल में फूलों की हम सब भारी-भारी उलझनें

कौन सुनता है यहाँ चुप भी रहो

June 30th, 2014

कौन सुनता है यहाँ चुप भी रहो
काट डालेंगे ज़ुबां चुप भी रहो

 

रहनुमाओं की यहाँ पर भीड़ है
लूट लेंगे कारवां चुप भी रहो

 

इस शहर पर प्रेत मंडराने लगे
बंद कर दो खिड़कियाँ चुप भी रहो

 

हैं बहुत हैरान बच्चे आजकल
टोकती रहती है माँ चुप भी रहो

 

अब कहाँ हैं अहले-फ़न समझेंगे जो
शेर की बारीक़ियाँ, चुप भी रहो

 

मुख़बरी करने लगी है अब ‘समर’
आपकी अपनी ज़ुबां चुप भी रहो

जब भी वो बाहर जाता है

June 30th, 2014

जब भी वो बाहर जाता है
चेहरा घर पर धर जाता है

 

रोज़ सवेरे जी उठता है
रोज़ शाम को मर जाता है

 

हक़ की ख़ातिर लड़ने वाला
नाहक़ में ही मर जाता है

 

जाने क्या देखा है उसने
आहट से ही डर जाता है

पाप बढ़ते जा रहे हैं

June 30th, 2014

पाप बढ़ते जा रहे हैं
पुण्य घटते जा रहे हैं

 

जब से सुविधाएँ बढ़ी हैं
सुख सिमटते जा रहे हैं

 

इसलिए ऋतुएँ ख़फ़ा हैं
पेड़ कटते जा रहे हैं

 

साम्प्रदायिक दलदलों में
लोग धँसते जा रहे हैं

 

घर नज़र आने लगा है
पाँव थकते जा रहे हैं

इसलिए तनहा खड़ा है

June 30th, 2014

इसलिए तनहा खड़ा है
है अभी उसमें अना है

 

बिन बिके जो लिख रहा है
हममें वो सबसे बड़ा है

 

भीड़ से बिल्कुल अलग है
आज भी वो सोचता है

 

ख़ून दौड़े है रग़ों में
जब कभी वो बोलता है

 

कल उसी पर शोध होंगे
आज जो अज्ञात-सा है

धीरे-धीरे मतलबी लोगों के मतलब देखकर

June 30th, 2014

धीरे-धीरे मतलबी लोगों के मतलब देखकर
हममें भी आ ही गईं चालाकियाँ सब देखकर

 

लोग बाँटेंगे तेरे दुख-दर्द ये आशा न रख
कोई पानी भी पिलाएगा तो मज़हब देखकर

 

खोखलेपन पर हम अपने खिलखिलाकर हँस पड़े
आईने से अपनी ही सूरत को ग़ायब देखकर

 

ज़िन्दगी को फिर से जीने की ललक पैदा हुई
तार पर चढ़ते हुए चींटे के करतब देखकर

काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे

June 30th, 2014

काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे
जब तलक़ ज़िन्दा रहे बचपन को दुलराते रहे

 

रात कैसे-कैसे ख्याल आते रहे, जाते रहे
घर की दीवारों से जाने क्या-क्या बतियाते रहे

 

स्वाभिमानी ज़िन्दगी जीने के अपराधी हैं हम
सैंकड़ों पत्थर हमारे गिर्द मँडराते रहे

 

कोई समझे या न समझे वो समझता है हमें
उम्र-भर इस मन को हम ये कह के समझाते रहे

 

ख्वाब में आते रहे वो सब शहीदाने-वतन
मरते-मरते भी जो वन्देमातरम् गाते रहे

ये ही हिन्दुस्तान है, लगता नहीं

June 30th, 2014

इसकी कुछ पहचान है लगता नहीं
ये ही हिन्दुस्तान है, लगता नहीं

 

कारनामे देखकर इस भीड़ में
एक भी इन्सान है, लगता नहीं

 

लुटती अस्मत देखकर भी चुप हैं ये
शेष स्वाभिमान है लगता नहीं

 

जायसी, रसख़ान जन्मे थे यहाँ
ये ही वो स्थान है, लगता नहीं

 

देख दंभी हौंसले, अब भी ख़ुदा
सर्वशक्तिमान है, लगता नहीं

रात दिन जो भोगते हैं

June 30th, 2014

रात दिन जो भोगते हैं
हम वही तो लिख रहे हैं

 

नाम पर उपलब्धियों के
ऑंकड़े ही ऑंकड़े हैं

 

इक अदद कुर्सी की ख़ातिर
घर, शहर, दफ्तर जले हैं

 

ये भी बच्चे हैं मगर ये
क्यों खिलौने बेचते हैं

लौट आए मनचले दिन शीत के

June 30th, 2014

लौट आए मनचले दिन शीत के
बाँचती है धूप दोहे प्रीत के

 

फिर से लिखने लग गई हैं तितलियाँ
मख़मली फूलों पे मुखड़े गीत के

 

मत्ता भँवरों की नफीरी बज उठी
तिर रहे हैं सात स्वर संगीत के

 

दर्प है झोंकों में कुछ जैसे कि ये
आए हैं संग्राम कोई जीत के