नये आसार कुछ अच्छे नहीं हैं

June 26th, 2014

नये आसार कुछ अच्छे नहीं हैं
दरख़्तों पर समर लगते नहीं हैं

 

दिवस, मरुथल व रातें जंगलों-सी
घरों में लोग अब रहते नहीं हैं

 

ग़ज़ब महँगाई है बाज़ार में जो
खिलौने हैं, मगर बच्चे नहीं हैं

 

वफ़ा के चंद लमहे, उम्र खोकर
जो मिल जाएँ तो कुछ महँगे नहीं हैं

 

जदील दौर है सब दौर-ए-हाज़िर
ग़ज़ल लिखते तो हैं, कहते नहीं हैं

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