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ज़िन्दगी के साथ जो रहती हैं सारी उलझनें

June 30th, 2014

ज़िन्दगी के साथ जो रहती हैं सारी उलझनें
कुछ अजानी और कुछ हैं नामधारी उलझनें

 

जितना सुलझाते गए, उतनी उलझती ही गईं
आदमी थक-हार बैठा पर न हारी उलझनें

 

अपनी-अपनी उलझनों में लोग हैं उलझे हुए
है किसे फ़ुर्सत जो सुलझाए तुम्हार उलझनें

 

घर तपोवन थे ये दुनिया स्वर्ग का प्रतिरूप थी
मिल के सुलझाते थे सब जब बारी-बारी उलझनें

 

प्यार की इससे बड़ी पहचान क्या होगी भला
आपको अपनी लगे हैं सब हमारी उलझनें

 

कितने पागल हैं जो डाले घूमते हैं गर्दनों में
शक्ल में फूलों की हम सब भारी-भारी उलझनें

काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे

June 30th, 2014

काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे
जब तलक़ ज़िन्दा रहे बचपन को दुलराते रहे

 

रात कैसे-कैसे ख्याल आते रहे, जाते रहे
घर की दीवारों से जाने क्या-क्या बतियाते रहे

 

स्वाभिमानी ज़िन्दगी जीने के अपराधी हैं हम
सैंकड़ों पत्थर हमारे गिर्द मँडराते रहे

 

कोई समझे या न समझे वो समझता है हमें
उम्र-भर इस मन को हम ये कह के समझाते रहे

 

ख्वाब में आते रहे वो सब शहीदाने-वतन
मरते-मरते भी जो वन्देमातरम् गाते रहे

दूर हैं पर अजनबी हम तो नहीं

June 30th, 2014

दूर हैं पर अजनबी हम तो नहीं
तेरे ख्वाबों में हैं हम कम तो नहीं

 

तेरी ऑंखों में ये ऑंसू किसलिये
बारिशों वाला ये मौसम तो नहीं

 

दिल पे लिक्खा नाम कैसे काट दूँ
ये किसी फाइल का कॉलम तो नहीं

 

भाग्य की रेखाओं में उलझो न तुम
ये तुम्हारी ज़ुल्फ़ के ख़म तो नहीं

दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था

June 26th, 2014

दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था
पर्वत भी बह गये वो बहाव बला का था

 

तलवों में किरचें चुभती रहीं जिसकी बार-बार
टूटा हुआ वो आईना मेरी अना का था

 

कुछ बुझ गये हवाओं से डूबे भँवर में कुछ
जलता रहा दीया जो मेरी आस्था का था

 

आँगन में आज तक मेरे ख़ुश्बू उसी की है
एहसास के चमन में वो झोंका हवा का था

 

जब तक थी मन में जलवाफ़िगन दर्द की किरण
मन्दिर वो एक जैसे किसी देवता का था

थक गयी जब भी क़लम सो जायेंगे

June 26th, 2014

थक गयी जब भी क़लम सो जायेंगे
फिर नहीं जागेंगे हम सो जायेंगे

 

रौशनी आँखों में बाक़ी है अभी
किस तरह रन्जो-अलम सो जायेंगे

 

सिर्फ़ ये इक रात के मेहमान हैं
ख़्वाब सारे सुभ-दम सो जायेंगे

 

मन है इक अन्धी गुफ़ा, दीपक जगा
ख़ुद-ब-ख़ुद सारे अहम् सो जायेंगे

 

ये रुपहले दृश्य, नज़्ज़ारे हसीं
साथ चल कर दो क़दम सो जायेंगे

जैसे कि स्वर मुख्य हुआ करता है हर इक सरगम में

June 26th, 2014

जैसे कि स्वर मुख्य हुआ करता है हर इक सरगम में
मन की भी इक अहम् भूमिका होती है हर मौसम में

 

याद तुम्हारी सूने मन को ज्योतिर्मय कर जाती है
जैसे किरण कौंध जाती है घटाटोप गहरे तम में

 

सात समुन्दर पार से उड़ कर आते थे पंछी हर साल
सूनी पड़ी हैं झीलें अबके हरे-भरे इस मौसम में

 

पीते ही कुछ बूंदें सारी दुनिया क़ाफ़िर लगती है
कैसी ये तासीर हुई है पैदा, आब-ए-जमजम में

 

बारह मास जहाँ रिमझिम हो, सावन हो, मधुरस टपके
मन बैरागी रहे भी कैसे ऐसे भीगे आलम में

केवल दो अक्षर का अपना

June 26th, 2014

केवल दो अक्षर का अपना
इक छोटे से घर का सपना

 

नीले अधरों पर अंकित है
हेमन्ती पतझड़ का सपना

 

देह दुल्हन की ससुराल में
आँखों में पीहर का सपना

 

भोर सिन्दूरी साँझ सुरमई
जैसे जादूगर का सपना

 

एक बूंद जीवन चातक को
क्यों देखे सागर का सपना

नभ में जब बादल छितराये

June 26th, 2014

नभ में जब बादल छितराये
झील में नीलकमल मुस्काये

 

सागर तो पी लूंगा मैं भी
कोई मुझ में प्यास जगाये

 

आलिंगन में नशा है जैसे
मौसम से मौसम टकराये

 

मन की बात न मन से पूछो
दीपक से दीपक जल जाये

 

बिष-दंशी चंदन ही जग को
अपनी ख़ुश्बू से महकाये

पहाड़ो ठण्डो पानी

June 26th, 2014

ऊँची-नीची राहों को ज़िन्दगी की मापती
लकड़ियों के बोझ से गोरी बाँहें काँपती
टेसू के फूल से अधरों को बाँचती
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

भेड़ों के बीच में खनखनाता बचपन
तकली की धुन पे थिरकता है यौवन
झुके-झुके नयनों से कह दी इक कहानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

पर्वतों के आँचल में बहती हुई धौली
बिन कहे ही जान गयी बिरहन की बोली
कंत नहीं आये आया चैत का महीना
मन को है साल रही घुघती की बानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

शाख़ें हैं झुक आईं, पक गईं खुमानियाँ
प्रियतम सँग बीते क्षण बन गये कहानियाँ
झरनों की रुनझुन में डूबी हुई नीमा
खोज रही खोये हुए प्यार की निशानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

बारहमासो

June 26th, 2014

पर्वतों की छाँव में
झरनों के गाँव में
किरणों की डोर ढलती साँझ को है माप रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

 

फूल्या बुरांस चैत महक उठी फ्यूलड़ी
पिऊ-पिऊ पुकारती बिरहन म्यूलड़ी
सूनी-सूनी आँखों से राहों को ताक रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

 

आड़ुओं की गंध देह में अमीय घोल रही
कुमुदनी मुँदी हुई पाखुरियाँ खोल रही
सुधियों में खोई-खोई भेड़ों को हाँक रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला