Archive for the ‘बरगद ने सब देखा है’ Category

अद्भुत है अनमोल है

June 29th, 2014

अद्भुत है, अनमोल है, महानगर की भोर
रोज़ जगाता है हमें, कान फोड़ता शोर

 

अद्भुत है, अनमोल है, महानगर की शाम
लगता है कि अभी-अभी, हुआ युद्ध विश्राम

 

अद्भुत है अनमोल है, महानगर की रात
दूल्हा थानेदार है, चोरों की बारात

जिस घर में बिटिया नहीं, वो घर रेगिस्तान

June 29th, 2014

तेरे जैसी ही हुई, मैं शादी के बाद
आती तो होगी तुझे, मिट्ठू मेरी याद

 

चलियो अब सिर तान के, बिटिया चली विदेश
गंगा तट तज आइयो, सब चिंता सब क्लेश

 

ख़ुश्बू हैं ये बाग़ की, रंगों की पहचान
जिस घर में बिटिया नहीं, वो घर रेगिस्तान

 

कैसा रस्म-रिवाज़ है, कैसा है दस्तूर
देश, विदेश बना गया, चुटकी भर सिन्दूर

 

बाबुल अब होगी नहीं, बहन-भाई में जंग
डोर तोड़ अनजान पथ, उड़कर चली पतंग

 

बाबुल तेरे गाँव को, कैसे जाऊँ भूल
रोम-रोम में देह के, रची इसी की धूल

 

बाबुल हमसे हो गयी, आख़िर कैसी भूल
क्रेता की हर शर्त जो, तूने करी क़ुबूल

 

दीवारों को पढ़ तनिक

June 29th, 2014

दीवारों को पढ़ तनिक, चौखट से कर बात
माना लम्बी है मगर, कट जायेगी रात

धरती मैया जैसी माँ

June 26th, 2014

धरती मैया जैसी माँ
सच पुरवैया जैसी माँ

 

पापा चरखी की डोरी
इक कनकैया जैसी माँ

 

तूफ़ानों में लगती है
सबको नैया जैसी माँ

 

बाज़ सरीखे सब नाते
इक गौरैया जैसी माँ

शक़्ल से बिल्कुल हमारी ही तरह दिखता था वो

June 26th, 2014

शक़्ल से बिल्कुल हमारी ही तरह दिखता था वो
पर बला की आग सीने में लिये फिरता था वो

 

दिन की अंधी गहमागहमी से मिला करता था जो
रात के उजले पहर में बैठ कर लिखता था वो

 

आँसुओं से थी लबालब ज़िंदगी उसकी मगर
जब भी हँसता था, ठहाके मार कर हँसता था वो

 

गीत-सी फ़ितरत थी उसकी, थी ग़ज़ल जैसी अदा
गीत और ग़ज़लों के शायद बीच का रिश्ता था वो

 

(महाप्राण निराला की स्मृति में)

दर्द के गाँव में ख़ुशियों का बसेरा कैसा

June 26th, 2014

दर्द के गाँव में ख़ुशियों का बसेरा कैसा
चाँद के हिस्से में रातें हैं सवेरा कैसा

 

रोज़ इक दिन मेरे हिस्से का चुरा लेता है
वक़्त को देखिये शातिर है लुटेरा कैसा

 

बँद पलकों में तेरे ख़्वाब हैं, तेरी यादें
नूर ही नूर है, इस घर में अँधेरा कैसा

 

जिनको धरती से ज़ियादा है गगन की चिन्ता
उन घने पेड़ों की छाया में बसेरा कैसा

अब नहीं है पहले जैसी बात उसकी चाल में

June 26th, 2014

अब नहीं है पहले जैसी बात उसकी चाल में
फिर से उलझी है नदी जलकुंभियों के जाल में

जाग कर धागों से कोई काढ़ता है अब कहाँ
प्यार के रंगीन अक्षर मखमली रूमाल में

अपने बूढ़े बाप का दुख जानती हैं बेटियाँ
इसलिये मर कर भी जी लेती हैं वो ससुराल में

बीज, मिट्टी, खाद की चिन्ता बिना हम चाहते
पेड़ से फल प्राप्त हो जाएँ हमें हर हाल में

अजीब दौर है, जीने की आस ग़ायब है

June 26th, 2014

अजीब दौर है, जीने की आस ग़ायब है
चमक-दमक तो है, लेकिन उजास ग़ायब है

 

हरे दरख़्त वो शहतूत और जामुन के
अभी भी गाँव में हैं, पर मिठास ग़ायब है

 

न जाने कौन सी रुत जी रहा है मन मेरा
नदी निकट है मेरे और प्यास ग़ायब है

 

शजर ये राजपथों के हैं इनसे क्या उम्मीद
तने हरे हैं सभी के, लिबास ग़ायब है

आदमी से भी बड़ी हैं कुर्सियाँ

June 26th, 2014

आदमी से भी बड़ी हैं कुर्सियाँ
तानकर सीना खड़ी हैं कुर्सियाँ

 

फ़ितरन हम तो अहिंसक हैं सभी
हम लड़े कब हैं, लड़ी हैं कुर्सियाँ

 

कैसा मज़हब, क्या सियासत, क्या अदब
सबके आँगन में पड़ी हैं कुर्सियाँ

 

आदमी छोटे-बड़े होते नहीं
दरअसल छोटी-बड़ी हैं कुर्सियाँ

 

उन निगाहों में कहाँ है रौशनी
दूर तक जिनमें अड़ी हैं कुर्सियाँ

नाचतीं, सबको नचातीं बिल्लियाँ

June 26th, 2014

नाचतीं, सबको नचातीं बिल्लियाँ
नित नये करतब दिखातीं बिल्लियाँ

 

सैंकड़ों चूहे पचा लेने के बाद
शान से फिर हज को जातीं बिल्लियाँ

 

हौंसला तो आप इनका देखिये
शेर से आँखें मिलातीं बिल्लियाँ

 

एक होकर जब चूहे भिड़ जायेंगे
तब मिलेंगीं दुम दबातीं बिल्लियाँ