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इसलिए तनहा खड़ा है

June 30th, 2014

इसलिए तनहा खड़ा है
है अभी उसमें अना है

 

बिन बिके जो लिख रहा है
हममें वो सबसे बड़ा है

 

भीड़ से बिल्कुल अलग है
आज भी वो सोचता है

 

ख़ून दौड़े है रग़ों में
जब कभी वो बोलता है

 

कल उसी पर शोध होंगे
आज जो अज्ञात-सा है

ये ही हिन्दुस्तान है, लगता नहीं

June 30th, 2014

इसकी कुछ पहचान है लगता नहीं
ये ही हिन्दुस्तान है, लगता नहीं

 

कारनामे देखकर इस भीड़ में
एक भी इन्सान है, लगता नहीं

 

लुटती अस्मत देखकर भी चुप हैं ये
शेष स्वाभिमान है लगता नहीं

 

जायसी, रसख़ान जन्मे थे यहाँ
ये ही वो स्थान है, लगता नहीं

 

देख दंभी हौंसले, अब भी ख़ुदा
सर्वशक्तिमान है, लगता नहीं

साधना में लीन ऋषियों जैसे लगते हैं दरख्त

June 30th, 2014

चंद्रिका की दूधिया चादर में सिमटे हैं दरख्त
साधना में लीन ऋषियों जैसे लगते हैं दरख्त

 

साये में इनके युगल दुख-दर्द अपना बाँचते
प्रेमियों के मन की पीड़ा को समझते हैं दरख्त

 

काटते हैं, चीरते हैं, मनुज इनको फिर भी ये
काम आते हैं उन्हीं के, सीधे-सादे हैं दरख्त

 

प्राय: हम सम्पन्न हो कर त्याग देते हैं विनय
किन्तु ज्यों-ज्यों फलते हैं, त्यों-त्यों ही झुकते हैं दरख्त

 

इनके ही कारण है इनमें वेग, बल, संचेतना
ऑंधियों की ऑंख में फिर भी खटकते हैं दरख्त

आपसे क्या मांगते हैं पेड़

June 30th, 2014

आपसे क्या मांगते हैं पेड़
बेवज्ह क्यूँ काटते हैं पेड़

 

छाँव ख़ुश्बू, बूटियाँ, फल-फूल
कुछ न कुछ तो बाँटते हैं पेड़

 

सारे धर्मों, जातियों, भाषाओं की
खाइयों को पाटते हैं पेड़

 

डंकिनी जैसे गरजती शोर करती
ऑंधियों को डाँटते हैं पेड़

 

निष्कपट मासूम बच्चों से
खिड़कियों से झाँकते हैं पेड़

तेरे मन में चोर न हो

June 30th, 2014

तू इतना कमज़ोर न हो
तेरे मन में चोर न हो

 

जग तुझको पत्थर समझे
इतना अधिक कठोर न हो

 

बस्ती हो या हो फिर वन
पैदा आदमख़ोर न हो

 

सब अपने हैं सब दुश्मन
बात न फैले, शोर न हो

 

सूरज तम से धुँधलाए
ऐसी कोई भोर न हो

मेरा और समुद्र का, इक जैसा इतिहास

June 29th, 2014

मेरा और समुद्र का, इक जैसा इतिहास
जल ही जल है कंठ तक, फिर भी बुझे न प्यास

 

बँधे हुए जिस पर कई, रँगों के रूमाल
हरी-भरी है आज भी, यादों की वह डाल

 

ताज़ा हैं सब आज भी, सूखे हुए ग़ुलाब
शब्द-शब्द महका रही, सुधियों रची ग़ुलाब

 

क्या पहले कुछ कम जले, विरहानल में प्राण
फागुन तू भी आ गया, ले फूलों के बाण

 

महानगर की धूप में, जब भी झुलसे पाँव
याद बहुत आई मुझे, पीपल तेरी छाँव

 

संकेतों से कर रहे, सबसे मन की बात
झूम-झूम कर बावरे, ये पीपल के पात

 

मत काटो इस पेड़ को, हो न जाओ यतीम
काल-पात्र है अनलिखा, आँगन का ये नीम

जिस घर में बिटिया नहीं, वो घर रेगिस्तान

June 29th, 2014

तेरे जैसी ही हुई, मैं शादी के बाद
आती तो होगी तुझे, मिट्ठू मेरी याद

 

चलियो अब सिर तान के, बिटिया चली विदेश
गंगा तट तज आइयो, सब चिंता सब क्लेश

 

ख़ुश्बू हैं ये बाग़ की, रंगों की पहचान
जिस घर में बिटिया नहीं, वो घर रेगिस्तान

 

कैसा रस्म-रिवाज़ है, कैसा है दस्तूर
देश, विदेश बना गया, चुटकी भर सिन्दूर

 

बाबुल अब होगी नहीं, बहन-भाई में जंग
डोर तोड़ अनजान पथ, उड़कर चली पतंग

 

बाबुल तेरे गाँव को, कैसे जाऊँ भूल
रोम-रोम में देह के, रची इसी की धूल

 

बाबुल हमसे हो गयी, आख़िर कैसी भूल
क्रेता की हर शर्त जो, तूने करी क़ुबूल

 

माँ से बढ़कर कुछ नहीं, क्या पैसा, क्या नाम

June 29th, 2014

माँ से बढ़कर कुछ नहीं, क्या पैसा, क्या नाम
चरण छुए और हो गये, तीरथ चारों धाम

 

इनकी बाँहों में बसा, स्वर्ग सरीखा गाँव
बाबूजी इक पेड़ हैं, अम्मा जिसकी छाँव

 

हम तो सोए चैन से, पल-पल देखे ख़्वाब
माँ कितना सोई जगी, इसका नहीं हिसाब

 

आज बहुत निर्धन हुआ, कल तक था धनवान
माँ रूठी तो यूँ लगा, रूठ गया भगवान

 

क्या जाने क्या खोजता, मरुथल में मृगछौन
बाहर बाहर शोर है, भीतर भीतर मौन

पहाड़ो ठण्डो पानी

June 26th, 2014

ऊँची-नीची राहों को ज़िन्दगी की मापती
लकड़ियों के बोझ से गोरी बाँहें काँपती
टेसू के फूल से अधरों को बाँचती
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

भेड़ों के बीच में खनखनाता बचपन
तकली की धुन पे थिरकता है यौवन
झुके-झुके नयनों से कह दी इक कहानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

पर्वतों के आँचल में बहती हुई धौली
बिन कहे ही जान गयी बिरहन की बोली
कंत नहीं आये आया चैत का महीना
मन को है साल रही घुघती की बानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

शाख़ें हैं झुक आईं, पक गईं खुमानियाँ
प्रियतम सँग बीते क्षण बन गये कहानियाँ
झरनों की रुनझुन में डूबी हुई नीमा
खोज रही खोये हुए प्यार की निशानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

बारहमासो

June 26th, 2014

पर्वतों की छाँव में
झरनों के गाँव में
किरणों की डोर ढलती साँझ को है माप रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

 

फूल्या बुरांस चैत महक उठी फ्यूलड़ी
पिऊ-पिऊ पुकारती बिरहन म्यूलड़ी
सूनी-सूनी आँखों से राहों को ताक रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

 

आड़ुओं की गंध देह में अमीय घोल रही
कुमुदनी मुँदी हुई पाखुरियाँ खोल रही
सुधियों में खोई-खोई भेड़ों को हाँक रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला