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कौन जाने कब किस पगडंडी से

June 26th, 2014

कौन जाने कब किस पगडंडी से
दीखे मोरा सिपहिया
घुघती टेर लगाती रहियो

 

धौलगंग तू ही मेरी सखी है सहेली
साथ-साथ दौड़ी और संग-संग खेली
तेरा गात छू के मैंने वचन दिये थे
पाप किये थे या पुण्य किये थे
कौन जाने कब साँस डोर छूट जाये
डोर छूट जाये मो सों भाग्य रूट जाये
कि बहना धीर्त बँधाती रहियो
घुघती टेर लगाती रहियो

 

अबके बरस बड़ी बरफ़ पड़ी है
जैसे सारी घाटी चाँदी से मढ़ी है
हिम से घिरी हैं ये शैल-शिखाएँ
जले हैं निगोड़ी और मुझे भी जलाएँ
अंग-अंग जैसे जंग छिड़ी है
पर्वत की नदिया जैसी देह चढ़ी है
घटाओ, हिम बरसाती रहियो
घुघती टेर लगाती रहियो