Archive for the ‘गीत’ Category

देश की माटी नहीं चंदन से कम

June 26th, 2014

देश की माटी नहीं चंदन से कम
चंदन से कम
जन्म जितनी बार भी लूँ
लूँ इसी भू पर जनम

 

सच कहो हर रोज़ इक त्यौहार देखा है कहीं
स्वर्ग का वैभव तो इसके सामने कुछ भी नहीं
हर दिशा उच्चारती सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्
देश की माटी नहीं चंदन से कम
चंदन से कम

 

पेड़, नदियाँ, पर्वतों तक की जहाँ हो आरती
शांति और सद्भावना की मूर्ति माँ भारती
सृष्टिकर्ता भी जहाँ पर जन्म लेते हैं स्वयम्
देश की माटी नहीं चंदन से कम
चंदन से कम

 

सप्तरंगी इन्द्रधनुषी सभ्यताओं से बंधे
शब्द हैं सबके अलग पर एक ही लय से बंधे
राम और रहमान मिलकर गाएँ वन्देमातरम्
देश की माटी नहीं चंदन से कम
चंदन से कम

गुरु का दर्जा

June 26th, 2014

गुरु का दर्जा सबसे ऊँचा सारे हिन्दुस्तान में
दसों दिशाएँ बाँच रही हैं, मंत्र ये सबके कान में

 

गुरु ही हैं जो सदा उबारे, पग-पग अंधकार के भय से
बिन शिक्षा के हम हैं ऐसे, बिना सुगंध सुमन हों जैसे
यही सार उद्घोषित होता, सब धर्मों के ज्ञान में

 

कितना भी हो कठिन लक्ष्य, आसान बनाते गुरुवर
सबकी राहों में आशा के, दीप जलाते गुरुवर
गुरु चाहें तो प्राण फूँक दें, पल भर में पाषाण में

 

आशंका, भय, कठिनाई से जब भी हम डरते हैं
तब गुरु ही अंधियारे पथ पर, उजियारा करते हैं
गुरु परिवर्तन कर सकते हैं, विधि के लिखे विधान में

 

क ख ग घ, ए बी सी डी, रटने को देते हैं
और फिर जीवन के दर्शन का पाठ पढ़ा देते हैं
शिक्षक ही अवलंबन बनते, बालक के उत्थान में

 

निस्पृहता और निश्छलता ही, गुरुता की थाती है
गुरु के मन में स्वार्थ भावना, पनप कहाँ पाती है
गुरु कुछ भेद नहीं करते हैं, शिष्य और संतान में

दिल्ली हिन्दुस्तान की धड़कन, हुस्न-ए-ग़ज़ल सी सुन्दर

June 26th, 2014

दिल्ली हिन्दुस्तान की धड़कन, हुस्न-ए-ग़ज़ल सी सुन्दर
कला और साहित्य का अद्भुत, संगम जिसके तट पर

 

इन्द्रप्रस्थ सी सुन्दर इसकी, रोचक बड़ी कहानी
पांडव से अंग्रेज़ों तक की, बनी रही ये रानी
इसे सँवारा सबने; सबकी रही ये दुल्हन बन कर
कला और साहित्य का अद्भुत, संगम जिसके तट पर

 

अरावली का ताज शीष पर, यमुना मांग सँवारे
इसके तट पर मन्दिर, मस्ज़िद, गिरिजाघर, गुरुद्वारे
सबका मजहब प्यार-मुहब्बत, अल्ला हो या ईश्वर
कला और साहित्य का अद्भुत, संगम जिसके तट पर

 

बापू, नेहरू, इंदिरा जी के, सपनों की ताबीर है दिल्ली
अमर शहीदों की क़ुरबानी, की सच्ची जागीर है दिल्ली
प्रजातन्त्र का तीरथ दिल्ली, हर तीरथ से बढ़ कर
कला और साहित्य का अद्भुत, संगम जिसके तट पर

पहाड़ो ठण्डो पानी

June 26th, 2014

ऊँची-नीची राहों को ज़िन्दगी की मापती
लकड़ियों के बोझ से गोरी बाँहें काँपती
टेसू के फूल से अधरों को बाँचती
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

भेड़ों के बीच में खनखनाता बचपन
तकली की धुन पे थिरकता है यौवन
झुके-झुके नयनों से कह दी इक कहानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

पर्वतों के आँचल में बहती हुई धौली
बिन कहे ही जान गयी बिरहन की बोली
कंत नहीं आये आया चैत का महीना
मन को है साल रही घुघती की बानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

शाख़ें हैं झुक आईं, पक गईं खुमानियाँ
प्रियतम सँग बीते क्षण बन गये कहानियाँ
झरनों की रुनझुन में डूबी हुई नीमा
खोज रही खोये हुए प्यार की निशानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

बारहमासो

June 26th, 2014

पर्वतों की छाँव में
झरनों के गाँव में
किरणों की डोर ढलती साँझ को है माप रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

 

फूल्या बुरांस चैत महक उठी फ्यूलड़ी
पिऊ-पिऊ पुकारती बिरहन म्यूलड़ी
सूनी-सूनी आँखों से राहों को ताक रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

 

आड़ुओं की गंध देह में अमीय घोल रही
कुमुदनी मुँदी हुई पाखुरियाँ खोल रही
सुधियों में खोई-खोई भेड़ों को हाँक रही
पर्वत की ओट कहीं नीमा अलाप्रही
बारहमासो मोरी छैला
बेड्यू पाको मोरी छैला

हो गए यतीम

June 26th, 2014

ना आंगन में किसी के तुलसी, ना पिछवाड़े नीम
सूख गए सब ताल-तलैया, हम हो गए यतीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

नए-नए नित रोग पनपते, नए-नए उपचार
नए चिकित्सक, नई चिकिस्ता, दोनों ही लाचार
धनवंतरि को आँख दिखाते हैं ये नीम-हक़ीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

क्रेडिट कार्ड्स हैं अब जेबों में, बाजू में बालाएँ
गुज़रे कल की बात हुई हैं, सच्ची प्रेम-कथाएँ
स्वयं आनारकली को चिनवाते हैं आज सलीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

गंगा को तज पूजन लागे दूषित पोखर-नाले
बोए बबूल, काट लिए हैं पेड़ सभी फल वाले
बौने क़द वाले भी अब तो लगने लगे लहीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

ललुआ जब से शहर में जाकर सीखा ए बी सी डी
गिटपिट-गिटपिट करता फिरता, सुनता नहीं किसी की
ना काहू से राम-राम ना काहू से रहीम
रे भैया हम हो गए यतीम

 

लक्ष्मण रेखाएँ नातों की अब न किसी को भातीं
चुभने लगा सिंदूर मांग में, चूड़ियाँ गड़-गड़ जातीं
धर्म-कर्म की सीख हुई है बूढ़ों की तालीम
रे भैया हम हो गए यतीम

हंसों के वंशज

June 26th, 2014

दो रोटी की ख़ातिर जीवन
क्यों दफ़्तर के नाम कर दिया?

 

हंसों के वंशज हैं लेकिन
कव्वों की कर रहे ग़ुलामी
यूँ अनमोल लम्हों की प्रतिदिन
होती देख रहे नीलामी
दर्पण जैसे निर्मल मन को
क्यों पत्थर के नाम कर दिया

 

पाने का लालच क्या जागा
गाँव की गठरी भी खो बैठे
स्वाभिमान, सम्मान सम्पदा
गिरवी रख कँगले हो बैठे
हरा-भरा संसार न जाने
क्यों पतझर के नाम कर दिया

कौन जाने कब किस पगडंडी से

June 26th, 2014

कौन जाने कब किस पगडंडी से
दीखे मोरा सिपहिया
घुघती टेर लगाती रहियो

 

धौलगंग तू ही मेरी सखी है सहेली
साथ-साथ दौड़ी और संग-संग खेली
तेरा गात छू के मैंने वचन दिये थे
पाप किये थे या पुण्य किये थे
कौन जाने कब साँस डोर छूट जाये
डोर छूट जाये मो सों भाग्य रूट जाये
कि बहना धीर्त बँधाती रहियो
घुघती टेर लगाती रहियो

 

अबके बरस बड़ी बरफ़ पड़ी है
जैसे सारी घाटी चाँदी से मढ़ी है
हिम से घिरी हैं ये शैल-शिखाएँ
जले हैं निगोड़ी और मुझे भी जलाएँ
अंग-अंग जैसे जंग छिड़ी है
पर्वत की नदिया जैसी देह चढ़ी है
घटाओ, हिम बरसाती रहियो
घुघती टेर लगाती रहियो

जलदीप

June 26th, 2014

देखना है-
कब तलक जलदीप
लहरों से लड़ेगा

 

कँपकँपाती उंगलियों को चूमकर
वेग से ये चल चल दिया लो झूमकर
चाँद-सा
भागीरथी के माथ पर
झिलमिल तिरेगा

 

है अमावस की निशा, तम है घना
जलगगन दमका रही है वर्तिका
देखकर
इसका सलोना रूप
जल, जल-जल मरेगा

 

है भँवर बेताब जाने कब डुबा दे
कौन सा झोंका हवाओं का बुझा दे
निज जनों का
इस क़दर प्रतिरोध
यह कब तक सहेगा

 

 

Listen Audio of Jaldeep

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अधपटा कुआँ पिछवाड़े का

June 26th, 2014

अधपटा कुआँ पिछवाड़े का
मुझको देखा तो चौंक उठा-
“हो गये पुत्र तुम इतने बड़े!
बैठो, कैसे रह गये खड़े।”
मैं उसकी ‘मन’ पर बैठ गया
सब पहले-सा, कुछ भी न गया
कुछ पल दोनों चुपचाप रहे
आख़िर मेरे ही होंठ खुले

 

पूछा- “बाबा! तुम कैसे हो?”
उत्तर आया- “कुछ मत पूछो।”

 

फूलों-से चेहरों का दर्पण
बन करके मैं इतराता था
पल में ख़ाली हो जाता था
पल भर में ही भर आता था
मुझ पर भी लोग धूप-अक्षत
फल-फूल चढ़ाने आते थे
ख़ाली आँचल फैलाते थे
आशीषें लेकर जाते थे
अब मेरा यह घट रीता है
अब कौन मेरा जल पीता है

 

अब बूँद-बूँद को तरसाते
लोहे वाले नल को पूजो

 

पूछी तूने जो कुशल-क्षेम
फिर आज मेरा मन भर आया
तू महानगर से भी लौटा
तो प्यास लिये ही घर आया
अब मैं भी कहाँ तेरे जलते
अधरों पर जल धर पाऊँगा
तेरे मन के ख़ालीपन को
अब कैसे मैं भर पाऊँगा
संगी-साथी सब छोड़ गये
पीपल-बरगद मुँह मोड़ गये

 

अब अपनी प्यास बुझाने को
अधरों पर धर ले बालू को।”