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आदमी से भी बड़ी हैं कुर्सियाँ

June 26th, 2014

आदमी से भी बड़ी हैं कुर्सियाँ
तानकर सीना खड़ी हैं कुर्सियाँ

 

फ़ितरन हम तो अहिंसक हैं सभी
हम लड़े कब हैं, लड़ी हैं कुर्सियाँ

 

कैसा मज़हब, क्या सियासत, क्या अदब
सबके आँगन में पड़ी हैं कुर्सियाँ

 

आदमी छोटे-बड़े होते नहीं
दरअसल छोटी-बड़ी हैं कुर्सियाँ

 

उन निगाहों में कहाँ है रौशनी
दूर तक जिनमें अड़ी हैं कुर्सियाँ