June 30th, 2014
पाप बढ़ते जा रहे हैं
पुण्य घटते जा रहे हैं
जब से सुविधाएँ बढ़ी हैं
सुख सिमटते जा रहे हैं
इसलिए ऋतुएँ ख़फ़ा हैं
पेड़ कटते जा रहे हैं
साम्प्रदायिक दलदलों में
लोग धँसते जा रहे हैं
घर नज़र आने लगा है
पाँव थकते जा रहे हैं
Tags: Philosophy, Poetry, Politics, Religion, Satire, Urbanization
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June 30th, 2014
इसकी कुछ पहचान है लगता नहीं
ये ही हिन्दुस्तान है, लगता नहीं
कारनामे देखकर इस भीड़ में
एक भी इन्सान है, लगता नहीं
लुटती अस्मत देखकर भी चुप हैं ये
शेष स्वाभिमान है लगता नहीं
जायसी, रसख़ान जन्मे थे यहाँ
ये ही वो स्थान है, लगता नहीं
देख दंभी हौंसले, अब भी ख़ुदा
सर्वशक्तिमान है, लगता नहीं
Tags: Culture, Poetry, Politics, Satire
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June 30th, 2014
रात दिन जो भोगते हैं
हम वही तो लिख रहे हैं
नाम पर उपलब्धियों के
ऑंकड़े ही ऑंकड़े हैं
इक अदद कुर्सी की ख़ातिर
घर, शहर, दफ्तर जले हैं
ये भी बच्चे हैं मगर ये
क्यों खिलौने बेचते हैं
Tags: Art, Development, Poetry, Politics, Poverty, Satire
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June 26th, 2014
जिनको हमने पर्वत समझा टीले निकले
आदर्शों के गात बड़े बर्फ़ीले निकले
हमको प्यास निचोड़ेगी आख़िर कब तक यों
खोदे जितने कुएँ सभी रेतीले निकले
राजनीति कि मुन्दरी में जो जड़े गये, वो
नग सारे, आख़िर पत्थर चमकीले निकले
कैसी अनहोनी है कि अबके फागुन में
सुर्ख़ गुलाबों के चेहरे भी पीले निकले
हल्की सी इक छुअन कसक जीवन भर की
फूलों जैसे बदन बड़े ज़हरीले निकले
Tags: Culture, Jinko hamne parvat samjha, Poetry, Politics, Relations, Satire
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June 26th, 2014
ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ है निगाहों में
घुल रहा है ज़हर हवाओं में
घर जिन्हें बाँध कर न रख पाया
क्या मिलेगा उन्हें गुफ़ाओं में
हर लहर से ये दीप जूझेंगे
नेह जब तक है वर्तिकाओं में
हर क़दम देख-भाल कर चलना
राहज़न भी हैं रहनुमाओं में
धर्म के नाम पर भी अब तो यहाँ
लोग जुड़ते नहीं सभाओं में
Tags: Culture, Khauf hi khauf hai nigaahon mein, Poetry, Politics, Religion, Satire
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June 26th, 2014
जाने कैसे-कैसे डर लगने लगे हैं
क़ैदखाने अपने घर लगने लगे हैं
अम्न की चर्चा है जब से शहर में
सहमे-सहमे से बशर लगने लगे हैं
फड़फड़ाते हैं परिन्दे क़ैद में
बोझ उनको अपने पर लगने लगे हैं
रौनक़ें चेहरों की जाने क्या हुईं
हादिसों के पोस्टर लगने लगे हैं
पूछने आते रहे जो ख़ैरियत
अब तो वो ही गुप्तचर लगने लगे हैं
Tags: Jaane kaise kaise Dar lagne lage hain, Politics, Satire
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June 26th, 2014
दर्द के गाँव में ख़ुशियों का बसेरा कैसा
चाँद के हिस्से में रातें हैं सवेरा कैसा
रोज़ इक दिन मेरे हिस्से का चुरा लेता है
वक़्त को देखिये शातिर है लुटेरा कैसा
बँद पलकों में तेरे ख़्वाब हैं, तेरी यादें
नूर ही नूर है, इस घर में अँधेरा कैसा
जिनको धरती से ज़ियादा है गगन की चिन्ता
उन घने पेड़ों की छाया में बसेरा कैसा
Tags: dard ke gaanv mein khushiyon ka basera kaisa, Philosophy, Poetry, Politics, Positivity, Romance, Satire
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June 26th, 2014
आदमी से भी बड़ी हैं कुर्सियाँ
तानकर सीना खड़ी हैं कुर्सियाँ
फ़ितरन हम तो अहिंसक हैं सभी
हम लड़े कब हैं, लड़ी हैं कुर्सियाँ
कैसा मज़हब, क्या सियासत, क्या अदब
सबके आँगन में पड़ी हैं कुर्सियाँ
आदमी छोटे-बड़े होते नहीं
दरअसल छोटी-बड़ी हैं कुर्सियाँ
उन निगाहों में कहाँ है रौशनी
दूर तक जिनमें अड़ी हैं कुर्सियाँ
Tags: Kursiyaan, Philosophy, Poetry, Politics, Satire
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June 26th, 2014
लगी है आग नगर में कि बेमकां चिड़िया
तलाशती है ठिकाना यहाँ-वहाँ चिड़िया
वो जानती है सभी क़ातिलों के नाम मगर
है घर की बात नहीं खोलती ज़ुबां चिड़िया
बिछे हैं जाल ज़मीं पे, फ़लक़ पे बर्क़ो-शरर
शिकार होती है दोनों के दरमियां चिड़िया
वो मेरे कमरे में खिड़की से आ ही जाती है
परों में ले के नया रोज़ आसमां चिड़िया
Tags: Chidiya, Confidence, Emotions, Nature, Poetry, Politics, Satire
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June 26th, 2014
मुश्क़िलें ही मुश्क़िलें हैं, और कोई हल नहीं
अब कुएँ बस नाम के हैं, इन कुओं में जल नहीं
बाज़ ने चिड़िया की गर्दन थाम कर उससे कहा
सभ्य लोगों की ये बस्ती है, येरा जंगल नहीं
तुम अगर भगवान हो तो फिर विवशता किसलिये
मेरे जैसे रूप में आ, पत्थरों में ढल नहीं
जगमगाते ये सियासत की हवेली के चिराग़
इनके आँचल में धुआँ है, नेह का काजल नहीं
Tags: Mushqilein hi mushqilein hain, Philosophy, Poetry, Politics, Satire
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