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अजीब दौर है, जीने की आस ग़ायब है

June 26th, 2014

अजीब दौर है, जीने की आस ग़ायब है
चमक-दमक तो है, लेकिन उजास ग़ायब है

 

हरे दरख़्त वो शहतूत और जामुन के
अभी भी गाँव में हैं, पर मिठास ग़ायब है

 

न जाने कौन सी रुत जी रहा है मन मेरा
नदी निकट है मेरे और प्यास ग़ायब है

 

शजर ये राजपथों के हैं इनसे क्या उम्मीद
तने हरे हैं सभी के, लिबास ग़ायब है