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साधना में लीन ऋषियों जैसे लगते हैं दरख्त

June 30th, 2014

चंद्रिका की दूधिया चादर में सिमटे हैं दरख्त
साधना में लीन ऋषियों जैसे लगते हैं दरख्त

 

साये में इनके युगल दुख-दर्द अपना बाँचते
प्रेमियों के मन की पीड़ा को समझते हैं दरख्त

 

काटते हैं, चीरते हैं, मनुज इनको फिर भी ये
काम आते हैं उन्हीं के, सीधे-सादे हैं दरख्त

 

प्राय: हम सम्पन्न हो कर त्याग देते हैं विनय
किन्तु ज्यों-ज्यों फलते हैं, त्यों-त्यों ही झुकते हैं दरख्त

 

इनके ही कारण है इनमें वेग, बल, संचेतना
ऑंधियों की ऑंख में फिर भी खटकते हैं दरख्त

आपसे क्या मांगते हैं पेड़

June 30th, 2014

आपसे क्या मांगते हैं पेड़
बेवज्ह क्यूँ काटते हैं पेड़

 

छाँव ख़ुश्बू, बूटियाँ, फल-फूल
कुछ न कुछ तो बाँटते हैं पेड़

 

सारे धर्मों, जातियों, भाषाओं की
खाइयों को पाटते हैं पेड़

 

डंकिनी जैसे गरजती शोर करती
ऑंधियों को डाँटते हैं पेड़

 

निष्कपट मासूम बच्चों से
खिड़कियों से झाँकते हैं पेड़

चिड़िया अम्बर बन जाती है

June 30th, 2014

पंखों को जब फैलाती है
चिड़िया अम्बर बन जाती है

 

कितने मौसम लौट आते हैं
जब चिड़िया गाना गाती है

 

धूप, छाँव, आँधी, बारिश को
एक भाव से अपनाती है

 

तिनकों तक से मोह नहीं है
छोड़ घोंसला उड़ जाती है

 

लेकिन देख धुँए के बादल
वो भी कितना घबराती है

मेरा और समुद्र का, इक जैसा इतिहास

June 29th, 2014

मेरा और समुद्र का, इक जैसा इतिहास
जल ही जल है कंठ तक, फिर भी बुझे न प्यास

 

बँधे हुए जिस पर कई, रँगों के रूमाल
हरी-भरी है आज भी, यादों की वह डाल

 

ताज़ा हैं सब आज भी, सूखे हुए ग़ुलाब
शब्द-शब्द महका रही, सुधियों रची ग़ुलाब

 

क्या पहले कुछ कम जले, विरहानल में प्राण
फागुन तू भी आ गया, ले फूलों के बाण

 

महानगर की धूप में, जब भी झुलसे पाँव
याद बहुत आई मुझे, पीपल तेरी छाँव

 

संकेतों से कर रहे, सबसे मन की बात
झूम-झूम कर बावरे, ये पीपल के पात

 

मत काटो इस पेड़ को, हो न जाओ यतीम
काल-पात्र है अनलिखा, आँगन का ये नीम

छाँव देते हैं जो उनको न जलाओ लोगो

June 26th, 2014

छाँव देते हैं जो उनको न जलाओ लोगो
इसमें भी जान है, आरी न चलाओ लोगो

 

इन हरे पेड़ों को ऐसे न जलाओ लोगो
छाँव ही देंगे तुम्हें पास तो आओ लोगो

 

काटना तो बहुत आसान है इनको लेकिन
सूखी शाख़ों को हरा कर के दिखाओ लोगो

 

चंद चीज़ें ज़रूरतों की, दरो-दरवाज़े
कट गये, फिर भी कहेंगे कि बनाओ लोगो

 

इन दरख़्तों की ही फुनगी पे चांद उगता है
चांदनी रात को मरने से बचाओ लोगो

 

हम तो सह लेंगे जो गुज़रेगी हमारे ऊपर
पर परिन्दों के घरों को न गिराओ लोगो

 

बेज़ुबानों की भी आहों में असर होता है
सोच लो, सोच के फिर हमको मिटाओ लोगो

 

धूप सुस्तायेगी फिर किसके भला काँधों पर
गुनगुनायेगी पवन किससे बताओ लोगो

 

दूर तक बालू-ही-बालू के गलीचे होंगे
पाँव जल जायेंगे कुछ होश में आओ लोगो

जैसे कि स्वर मुख्य हुआ करता है हर इक सरगम में

June 26th, 2014

जैसे कि स्वर मुख्य हुआ करता है हर इक सरगम में
मन की भी इक अहम् भूमिका होती है हर मौसम में

 

याद तुम्हारी सूने मन को ज्योतिर्मय कर जाती है
जैसे किरण कौंध जाती है घटाटोप गहरे तम में

 

सात समुन्दर पार से उड़ कर आते थे पंछी हर साल
सूनी पड़ी हैं झीलें अबके हरे-भरे इस मौसम में

 

पीते ही कुछ बूंदें सारी दुनिया क़ाफ़िर लगती है
कैसी ये तासीर हुई है पैदा, आब-ए-जमजम में

 

बारह मास जहाँ रिमझिम हो, सावन हो, मधुरस टपके
मन बैरागी रहे भी कैसे ऐसे भीगे आलम में

नभ में जब बादल छितराये

June 26th, 2014

नभ में जब बादल छितराये
झील में नीलकमल मुस्काये

 

सागर तो पी लूंगा मैं भी
कोई मुझ में प्यास जगाये

 

आलिंगन में नशा है जैसे
मौसम से मौसम टकराये

 

मन की बात न मन से पूछो
दीपक से दीपक जल जाये

 

बिष-दंशी चंदन ही जग को
अपनी ख़ुश्बू से महकाये

पहाड़ो ठण्डो पानी

June 26th, 2014

ऊँची-नीची राहों को ज़िन्दगी की मापती
लकड़ियों के बोझ से गोरी बाँहें काँपती
टेसू के फूल से अधरों को बाँचती
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

भेड़ों के बीच में खनखनाता बचपन
तकली की धुन पे थिरकता है यौवन
झुके-झुके नयनों से कह दी इक कहानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

पर्वतों के आँचल में बहती हुई धौली
बिन कहे ही जान गयी बिरहन की बोली
कंत नहीं आये आया चैत का महीना
मन को है साल रही घुघती की बानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

 

शाख़ें हैं झुक आईं, पक गईं खुमानियाँ
प्रियतम सँग बीते क्षण बन गये कहानियाँ
झरनों की रुनझुन में डूबी हुई नीमा
खोज रही खोये हुए प्यार की निशानी
पहाड़ो ठण्डो पानी
तेरी-मेरी बातें जानी

खूब चर्चा है आज काँटों में

June 26th, 2014

खूब चर्चा है आज काँटों में
तितलियाँ हैं गुलों की बाँहों में

 

फूल सबको सुगन्ध देते थे
कल पढ़ेंगे ये हम किताबों में

 

कोई झोंका इन्हें भिड़ाता है
तब भड़कती है आग बाँसों में

 

दिल जलाया तो रौशनी सी हुई
रौशनी थी कहाँ चिराग़ों में

 

निर्झरों को सुक़ून मिलता है
इक पहाड़ी नदी की बाँहों में

झूठा ही सही फिर भी ये श्रम टूट न जाये

June 26th, 2014

झूठा ही सही फिर भी ये श्रम टूट न जाये
धरती से जुड़े रहने का भ्रम टूट न जाये

 

इस देह से बाहर तू कभी आ नहीं सकता
जब तक तेरे भीतर का अहम् टूट न जाये

 

जीवन के कटु सत्य की ताबीर हैं लहरें
बन-बन के बिखरने का ये क्रम टूट न जाये

 

अम्बर कभी धरती से मिला है, न मिलेगा
पर डूबते मंज़र का ये भ्रम टूट न जाये

 

आज़ाद परिन्दे की तरह रोज़ उड़ूंगा
जब तक मेरी परवाज़ का दम टूट न जाये