Archive for the ‘ज़र्द पत्तों का सफ़र’ Category

इच्छा का प्रश्न है न अनिच्छा क प्रश्न है

June 26th, 2014

इच्छा का प्रश्न है न अनिच्छा क प्रश्न है
हर युग में एकलव्य की शिक्षा का प्रश्न है

 

ना राष्ट्र, न समाज, न तहज़ीब का ख़याल
सबके समक्ष अपनी सुरक्षा का प्रश्न है

 

बगुलों का क्या, मिला जो उठाकर वो खा गये
हंसों में ये भी एक परीक्षा का प्रश्न है

 

शब्दों के मोह जाल से उठकर वो लिख सके
कवि के लिये ये अग्नि-परीक्षा का प्रश्न है

 

कब तक मैं पत्थरों को सहूँ कट के भीड़ से
ये मेरे धैर्य, मेरी परीक्षा का प्रश्न है

मुज़रिम है यहाँ कौन सभी को ये ख़बर है

June 26th, 2014

मुज़रिम है यहाँ कौन सभी को ये ख़बर है
ख़ामोश हैं सब जैसे ये गूंगों का नगर है

 

इन बुझते चिराग़ों का धुआँ देख रहा हूँ
महसूस ये होता है कि नज़दीक शहर है

 

हम दूब सही पाँव की, वृक्षों से हैं बेहतर
आँधी की हमें फ़िक़्र न तूफ़ानों का डर है

 

पाँवों में न डालो मेरे तहशीर की ज़ंजीर
मंज़िल है अभी दूर बड़ा लम्बा सफ़र है

उड़ा के क्या क्या ये राहों में बिछा देती हैं

June 26th, 2014

उड़ा के क्या क्या ये राहों में बिछा देती हैं
सफ़र में आँधियाँ कुछ और मज़ा देती हैं

 

इन्हीं के दम से चिराग़ों में उजाला है मगर
यही हवाएँ चिराग़ों को बुझा देती हैं

 

मैं जानता हूँ कई ख़ामियाँ मुझमें हैं मगर
ये ख़ामियाँ ही मुझे मेरा पता देती हैं

 

तुम्हारे मुख से टपकती ये लहू की बूँदें
तुम्हारे मन में है क्या- आप बता देती हैं

आँसुओं को छुपाना होता है

June 26th, 2014

आँसुओं को छुपाना होता है
जब कभी मुस्कुराना होता है

 

हर नये ग़म को ये हिदायत है
मेरे घर हो के जाना होता है

 

साफ़ रह्ने के वास्ते मन को
आँसुओं से नहाना होता है

 

ख़ुद-ब-ख़ुद ज़ख़्म हँसने लगते हैं
जब भी मौसम सुहाना होता है

 

रात जागे है क्योंकि रोज़ इसे
एक सूरज उगाना होता है

दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था

June 26th, 2014

दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था
पर्वत भी बह गये वो बहाव बला का था

 

तलवों में किरचें चुभती रहीं जिसकी बार-बार
टूटा हुआ वो आईना मेरी अना का था

 

कुछ बुझ गये हवाओं से डूबे भँवर में कुछ
जलता रहा दीया जो मेरी आस्था का था

 

आँगन में आज तक मेरे ख़ुश्बू उसी की है
एहसास के चमन में वो झोंका हवा का था

 

जब तक थी मन में जलवाफ़िगन दर्द की किरण
मन्दिर वो एक जैसे किसी देवता का था

थक गयी जब भी क़लम सो जायेंगे

June 26th, 2014

थक गयी जब भी क़लम सो जायेंगे
फिर नहीं जागेंगे हम सो जायेंगे

 

रौशनी आँखों में बाक़ी है अभी
किस तरह रन्जो-अलम सो जायेंगे

 

सिर्फ़ ये इक रात के मेहमान हैं
ख़्वाब सारे सुभ-दम सो जायेंगे

 

मन है इक अन्धी गुफ़ा, दीपक जगा
ख़ुद-ब-ख़ुद सारे अहम् सो जायेंगे

 

ये रुपहले दृश्य, नज़्ज़ारे हसीं
साथ चल कर दो क़दम सो जायेंगे

छाँव देते हैं जो उनको न जलाओ लोगो

June 26th, 2014

छाँव देते हैं जो उनको न जलाओ लोगो
इसमें भी जान है, आरी न चलाओ लोगो

 

इन हरे पेड़ों को ऐसे न जलाओ लोगो
छाँव ही देंगे तुम्हें पास तो आओ लोगो

 

काटना तो बहुत आसान है इनको लेकिन
सूखी शाख़ों को हरा कर के दिखाओ लोगो

 

चंद चीज़ें ज़रूरतों की, दरो-दरवाज़े
कट गये, फिर भी कहेंगे कि बनाओ लोगो

 

इन दरख़्तों की ही फुनगी पे चांद उगता है
चांदनी रात को मरने से बचाओ लोगो

 

हम तो सह लेंगे जो गुज़रेगी हमारे ऊपर
पर परिन्दों के घरों को न गिराओ लोगो

 

बेज़ुबानों की भी आहों में असर होता है
सोच लो, सोच के फिर हमको मिटाओ लोगो

 

धूप सुस्तायेगी फिर किसके भला काँधों पर
गुनगुनायेगी पवन किससे बताओ लोगो

 

दूर तक बालू-ही-बालू के गलीचे होंगे
पाँव जल जायेंगे कुछ होश में आओ लोगो

जैसे कि स्वर मुख्य हुआ करता है हर इक सरगम में

June 26th, 2014

जैसे कि स्वर मुख्य हुआ करता है हर इक सरगम में
मन की भी इक अहम् भूमिका होती है हर मौसम में

 

याद तुम्हारी सूने मन को ज्योतिर्मय कर जाती है
जैसे किरण कौंध जाती है घटाटोप गहरे तम में

 

सात समुन्दर पार से उड़ कर आते थे पंछी हर साल
सूनी पड़ी हैं झीलें अबके हरे-भरे इस मौसम में

 

पीते ही कुछ बूंदें सारी दुनिया क़ाफ़िर लगती है
कैसी ये तासीर हुई है पैदा, आब-ए-जमजम में

 

बारह मास जहाँ रिमझिम हो, सावन हो, मधुरस टपके
मन बैरागी रहे भी कैसे ऐसे भीगे आलम में

केवल दो अक्षर का अपना

June 26th, 2014

केवल दो अक्षर का अपना
इक छोटे से घर का सपना

 

नीले अधरों पर अंकित है
हेमन्ती पतझड़ का सपना

 

देह दुल्हन की ससुराल में
आँखों में पीहर का सपना

 

भोर सिन्दूरी साँझ सुरमई
जैसे जादूगर का सपना

 

एक बूंद जीवन चातक को
क्यों देखे सागर का सपना

नभ में जब बादल छितराये

June 26th, 2014

नभ में जब बादल छितराये
झील में नीलकमल मुस्काये

 

सागर तो पी लूंगा मैं भी
कोई मुझ में प्यास जगाये

 

आलिंगन में नशा है जैसे
मौसम से मौसम टकराये

 

मन की बात न मन से पूछो
दीपक से दीपक जल जाये

 

बिष-दंशी चंदन ही जग को
अपनी ख़ुश्बू से महकाये