June 26th, 2014
कल तलक मशहूर था, ये बाग़ फूलों के लिये
आज आरक्षित है कीकर और बबूलों के लिये
हादिसे इस शहर में पहले भी होते थे मगर
लोग लड़ते थे तो लड़ते थे उसूलों के लिये
करना होगा कितना पश्चाताप सोचा है कभी
आने वाली नस्ल को हम सबकी भूलों के लिये
बेटियाँ बाबुल के घर जब लौटती थीं तीज पर
टहनियाँ नीचे सरक आती थीं झूलों के लिये
Tags: Culture, Environment, Feminism, Nature, Philosophy, Poetry
Posted in ख़ुशबुओं की यात्रा, ग़ज़ल, बरगद ने सब देखा है | No Comments »
June 26th, 2014
अपनी बूढ़ी आँखों से कल, बरगद ने सब देखा है
कहाँ गिरा लाजो का आँचल, बरगद ने सब देखा है
तानों से तँग आकर आख़िर गाँव की मीठी पोखर ने
धीरे-धीरे ओढ़ी दलदल, बरगद ने सब देखा है
मौसम जिन खेतों में आकर डेरा डाला करते थे
खेत बने वो कैसे जंगल, बरगद ने सब देखा है
कल तक सारे मज़हब जिसको अदब से शीश नवाते थे
किसने काटा है वो पीपल, बरगद ने सब देखा है
मुन्सिफ़ बने हुए हैं कव्वे, गिध्दों की पंचायत में
अपराधिन-सी खड़ी है कोयल बरगद ने सब देखा है
गेहूँ बोये किन्तु खेत में फ़स्ल उगी बन्दूकों की
गाँव हो गये कैसे चम्बल, बरगद ने सब देखा है
Tags: Culture, Environment, Feminism, Nature, Poetry, Satire, Urbanization
Posted in ख़ुशबुओं की यात्रा, ग़ज़ल, चौमास, ज़र्द पत्तों का सफ़र, बरगद ने सब देखा है | No Comments »