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काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे

June 30th, 2014

काग़ज़ी कुछ कश्तियाँ नदियों में तैराते रहे
जब तलक़ ज़िन्दा रहे बचपन को दुलराते रहे

 

रात कैसे-कैसे ख्याल आते रहे, जाते रहे
घर की दीवारों से जाने क्या-क्या बतियाते रहे

 

स्वाभिमानी ज़िन्दगी जीने के अपराधी हैं हम
सैंकड़ों पत्थर हमारे गिर्द मँडराते रहे

 

कोई समझे या न समझे वो समझता है हमें
उम्र-भर इस मन को हम ये कह के समझाते रहे

 

ख्वाब में आते रहे वो सब शहीदाने-वतन
मरते-मरते भी जो वन्देमातरम् गाते रहे

लोग मिलते रहे उनमें अपनापन नहीं मिला

June 26th, 2014

लोग मिलते रहे उनमें अपनापन नहीं मिला
देह से देह मिली, मन से कभी मन न मिला

 

उम्र के हर गली-कूँचे में पुकारा उसको
ऐसा रूठा कि मुझे फिर मेरा बचपन न मिला

 

टिमटिमाई तो कई बार मगर जग न सकी
आस की ज्योति जिसे नेह का कंगन न मिला

 

नभ को छूते हुए महलों में बहुत खोजा मगर
गिन सकें तारे जहाँ लेट के, आँगन न मिला

 

भावनाओं की छवि जिसमें मिहारी जाये
हमने ढूँढा तो बहुत पर हमें दर्पण न मिला

खोजना है खोजिए, मिल जाएगा मेरा पता

June 26th, 2014

खोजना है खोजिए, मिल जाएगा मेरा पता
बूढ़े पेड़ों के तनों पर अब भी है लिक्खा हुआ

 

ख़ुदग़रज़ दुनिया से मैंने आज तक चाहा भी क्या
कोई स्वर, कोई ग़ज़ल या कोई मुखड़ा गीत का

 

रूह में ताज़ा है जिसकी सौंधी ख़ुश्बू आज भी
उस शहर में अब मुझे कोई नहीं पहचानता

 

मेरे बचपन से मुझे इक बार जो मिलवा सके
ढूँढता फिरता हूँ मैं जादू का ऐसा आइना

 

हमने दीवारें गिराई थीं कि हम होंगे क़रीब
और बढ़ता ही गया लेकिन दिलों का फ़ासला

 

ढेर सारे अप्रतीक्षित पत्र मिलते हैं मुझे
मुझको है जिसकी तलब, लाता नहीं वो डाकिया