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थक गयी जब भी क़लम सो जायेंगे

June 26th, 2014

थक गयी जब भी क़लम सो जायेंगे
फिर नहीं जागेंगे हम सो जायेंगे

 

रौशनी आँखों में बाक़ी है अभी
किस तरह रन्जो-अलम सो जायेंगे

 

सिर्फ़ ये इक रात के मेहमान हैं
ख़्वाब सारे सुभ-दम सो जायेंगे

 

मन है इक अन्धी गुफ़ा, दीपक जगा
ख़ुद-ब-ख़ुद सारे अहम् सो जायेंगे

 

ये रुपहले दृश्य, नज़्ज़ारे हसीं
साथ चल कर दो क़दम सो जायेंगे

लोग मिलते रहे उनमें अपनापन नहीं मिला

June 26th, 2014

लोग मिलते रहे उनमें अपनापन नहीं मिला
देह से देह मिली, मन से कभी मन न मिला

 

उम्र के हर गली-कूँचे में पुकारा उसको
ऐसा रूठा कि मुझे फिर मेरा बचपन न मिला

 

टिमटिमाई तो कई बार मगर जग न सकी
आस की ज्योति जिसे नेह का कंगन न मिला

 

नभ को छूते हुए महलों में बहुत खोजा मगर
गिन सकें तारे जहाँ लेट के, आँगन न मिला

 

भावनाओं की छवि जिसमें मिहारी जाये
हमने ढूँढा तो बहुत पर हमें दर्पण न मिला

ख़ुद को अपने से अलग कर, जब कभी सोचूँ हूँ मैं

June 26th, 2014

ख़ुद को अपने से अलग कर, जब कभी सोचूँ हूँ मैं
दूर तक, बस दूर तक बिखरा हुआ पाऊँ हूँ मैं

 

लम्हा-लम्हा फूटता है, मुझमें इक ज्वालामुखी
अपने एहसासात की ही आँच में झुलसूँ हूँ मैं

 

हाँ वो सूरज है मगर मैं भी तो उससे कम नहीं
रोज़ निकलूँ हूँ सुबह को, शाम को डूबूँ हूँ मैं

 

मुझको ये मालूम है वो एक झोंका था मगर
कैसा पागल हूँ जो अब तक रास्ता देखूँ हूँ मैं

 

है बग़ावत शायरी, ख़ुद से हो या फिर वक़्त से
एक बाग़ी की तरह हर शे’र से जूझूँ हूँ मैं

चुप की बाँह मरोड़े कौन

June 26th, 2014

चुप की बाँह मरोड़े कौन
सन्नाटे को तोड़े कौन

 

माना रेत में जल भी है
रेत की देह निचोड़े कौन

 

सागर सब हो जाएँ मगर
साथ नदी के दौड़े कौन

 

मुझको अपना बतलाकर
ग़म से रिश्ता जोड़े कौन

 

भ्रम हैं, ख़्वाब सलोने पर
नींद से नाता तोड़े कौन

आँसुओं का ज़लज़ला अच्छा लगा

June 26th, 2014

आँसुओं का ज़लज़ला अच्छा लगा
तपती आँखों को छुआ, अच्छा लगा

 

वो हमारे बीच रहकर भी न था
आईने का टूटना अच्छा लगा

 

अब के सावन में भी जाने क्यों हमें
बादलों का रूठना अच्छा लगा

 

उस निपट तनहा चटकती धूप में
नीम का इक पेड़ था, अच्छा लगा

 

आँधियों के गाँव में दीखा हमें
इक दीया जलता हुआ, अच्छा लगा

खिंच गई जब से दिवारें आँगनों के बीच में

June 26th, 2014

खिंच गई जब से दिवारें आँगनों के बीच में
हम निपट नंगे हुए अपने जनों के बीच में

 

ख़ून देकर भी उसे यदि कर सको कर लो हरा
वो जो रेगिस्तान है दो गुलशनों के बीच में

 

आपने जिनको पुराना जान कर मौला दिया
चूड़ियाँ महफ़ूज़ थीं उन कंगनों के बीच में

 

अब बहुत ख़ुशहाल है फिर भी वो रहता है उदास
ख़ुश नज़र आता था जो सौ उलझनों के बीच में

 

रौशनी इसकी अचानक सौ गुना बढ़ जाएगी
आ गया जिस पल ये दीपक आइनों के बीच में

 

आँधियों से भी दरख़्तों में न हो टकराव, सो
दूरियाँ लाज़िम है इतनी दो तनों के बीच में

सिर्फ़ सन्नाटा सुलगता है यहाँ साँझ ढले

June 26th, 2014

सिर्फ़ सन्नाटा सुलगता है यहाँ साँझ ढले
ताज़गी बख्श दे ऐसा कोई झोंका तो चले

 

गाँव के मीठे कुएँ पाट दिए क्यों हमने
इसका एहसास हुआ प्यास से जब होंठ जले

 

यूँ तो हर मोड़ पे मिलने को मिले लोग बहुत
धूप क्या तेज़ हुई साथ सभी छोड़ चले

 

आँख में चुभने लगे अब ये रुपहले मंज़र
दिल सुलगता है हरे पेड़ों की ज़ुल्फ़ों के तले

 

एक अरसे से भटकता हूँ गुलिस्तानों में
कोई काँटा तो मिले जिससे ये काँटा निकले

ये काम है तो बहुत ही कठिन मगर ढूँढें

June 26th, 2014

ये काम है तो बहुत ही कठिन मगर ढूँढें
नदी के तट पे गिरे रेत के वो घर ढूँढें

 

महक उठे हैं ये काँटे गुलाब की मानिन्द
चलो कि बाग़ में अब तितलियों के पर ढूँढें

 

ये कह रही है मुसाफ़िर से रास्ते की थकन
मैं साथ हूँ तो तेरे, चल नया सफ़र ढूँढें

 

सभी हैं पीर, पयम्बर कि सन्त और पण्डे
कोई बताये यहाँ आदमी किधर ढूँढें

 

उसे तो मरना था, वो मर गई, चलो आओ
जो उसके जिस्म में चटके थे वो शरर ढूँढें

 

उगे सहन में मेरे और छाँव दे तुझको
वफ़ा की गलियों में हम ऐसा इक शजर ढूँढें

 

यही तक़ाज़ा है महकी हुई हवाओं का
चलो दरख़्तों के दामन में कुछ समर ढूँढें

अजनबी नज़रों से अपने आप को देखा न कर

June 26th, 2014

अजनबी नज़रों से अपने आप को देखा न कर
आइनों का दोष क्या है? आइने तोड़ा न कर

 

ये भी मुमकिन है ये बौनों का नगर हो इसलिए
छोटे दरवाज़ों की ख़ातिर अपना क़द छोटा न कर

 

यह सनक तुझको भी पत्थर ही न कर डाले कहीं
हर किसी पत्थर को पारस जानकर परखा न कर

 

रात भी गुज़रेगी, कल सूरज भी निकलेगा ज़रूर
ये अँधेरे चन्द लमहों के हैं, जी छोटा न कर

 

काँच सारी खिड़कियों के धूप ने चटका दिए
वक़्त की चेतावनी को और अनदेखा न कर