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पाप बढ़ते जा रहे हैं

June 30th, 2014

पाप बढ़ते जा रहे हैं
पुण्य घटते जा रहे हैं

 

जब से सुविधाएँ बढ़ी हैं
सुख सिमटते जा रहे हैं

 

इसलिए ऋतुएँ ख़फ़ा हैं
पेड़ कटते जा रहे हैं

 

साम्प्रदायिक दलदलों में
लोग धँसते जा रहे हैं

 

घर नज़र आने लगा है
पाँव थकते जा रहे हैं

दिन-ब-दिन जितने अधिक उन्नत हुए

June 26th, 2014

दिन-ब-दिन जितने अधिक उन्नत हुए
धीरे धीरे गुण सभी अपहृत हुए

 

ज्ञान बिन हम इस तरह आहत हुए
राम के बिन ज्यों व्यथित दशरथ हुए

 

राजनीति के मुकुट को धार कर
सन्त भी अज्ञान में मदमत्त हुए

 

सूर्य अपनी रौशनी ख़ुद पी गया
सारे मज़हब धुन्ध की इक छत हुए

 

काल के इस फेर को तो देखिये
जितने टीले थे सभी पर्वत हुए

 

सत्य को सूली चढ़ाने के लिये
लोग जाने किस तरह सहमत हुए

ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ है निगाहों में

June 26th, 2014

ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ है निगाहों में
घुल रहा है ज़हर हवाओं में

 

घर जिन्हें बाँध कर न रख पाया
क्या मिलेगा उन्हें गुफ़ाओं में

 

हर लहर से ये दीप जूझेंगे
नेह जब तक है वर्तिकाओं में

 

हर क़दम देख-भाल कर चलना
राहज़न भी हैं रहनुमाओं में

 

धर्म के नाम पर भी अब तो यहाँ
लोग जुड़ते नहीं सभाओं में

आजकल हम लोग बच्चों की तरह लड़ने लगे

June 26th, 2014

आजकल हम लोग बच्चों की तरह लड़ने लगे
चाबियों वाले खिलौनों की तरह लड़ने लगे

 

ठूँठ की तरह अकारण ज़िंदगी जीते रहे
जब चली आँधी तो पत्तों की तरह लड़ने लगे

 

कौन सा सत्संग सुनकर आये थे बस्ती के लोग
लौटते ही दो क़बीलों की तरह लड़ने लगे

 

हम फ़कत शतरंज की चालें हैं उनके वास्ते
दी ज़रा-सी शह तो मोहरों की तरह लड़ने लगे

 

इससे तो बेहतर था हम जाहिल ही रह जाते, मगर
पढ़ गए, पढ़कर दरिंदों की तरह लड़ने लगे