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जैसे कि स्वर मुख्य हुआ करता है हर इक सरगम में

June 26th, 2014

जैसे कि स्वर मुख्य हुआ करता है हर इक सरगम में
मन की भी इक अहम् भूमिका होती है हर मौसम में

 

याद तुम्हारी सूने मन को ज्योतिर्मय कर जाती है
जैसे किरण कौंध जाती है घटाटोप गहरे तम में

 

सात समुन्दर पार से उड़ कर आते थे पंछी हर साल
सूनी पड़ी हैं झीलें अबके हरे-भरे इस मौसम में

 

पीते ही कुछ बूंदें सारी दुनिया क़ाफ़िर लगती है
कैसी ये तासीर हुई है पैदा, आब-ए-जमजम में

 

बारह मास जहाँ रिमझिम हो, सावन हो, मधुरस टपके
मन बैरागी रहे भी कैसे ऐसे भीगे आलम में

चाँदनी रातों में अक्सर बोलते हैं

June 26th, 2014

चाँदनी रातों में अक्सर बोलते हैं
ख़ुशनुमा ख़ामोश मंज़र बोलते हैं

 

बोलते हैं, जब भी रहबर बोलते हैं
फूल से लहजे में पत्थर बोलते हैं

 

मैं बहुत ख़ामोश होता हूँ तो मुझसे
घर के सन्नाटे लिपटकर बोलते हैं

 

जब ज़बां पर कैंचियाँ लटकी हुई हों
धार पा जाते हैं अक्षर, बोलते हैं

 

पत्थरों में प्राण भरते हैं जो अक्सर
ऐसे लोगों को ‘सुख़नवर’ बोलते हैं

कभी सपने, कभी आँसू, कभी काजल की तरह

June 26th, 2014

कभी सपने, कभी आँसू, कभी काजल की तरह
चश्म-दर-चश्म भटकता फिरा बादल की तरह

 

ज़िन्दगी मेरी मरुस्थल है, हर इक बूँद मुझे
रोज़ दौड़ाती रही है किसी पागल की तरह

 

ऐसा लगता है कहीं पास, बहुत पास है तू
सरसराती है हवा जब तेरे आँचल की तरह

 

चन्द रोज़ा हैं ये ख़ुशियाँ, तू इन्हें क़ैद न कर
मुट्ठियों से ये फिसल जाएंगी मख़मल की तरह

 

धूप दुश्मन के भी हिस्से की उठा लेगा अगर
लोग पूजेंगे तुझे गाँव के पीपल की तरह

कभी तिनके, कभी पत्ते, कभी ख़ुश्बू उड़ा लाई

June 26th, 2014

कभी तिनके, कभी पत्ते, कभी ख़ुश्बू उड़ा लाई
हमारे घर तो आँधी भी कभी तनहा नहीं आई

 

लचकती डाल को ही सबने लचकाया है इस जग में
सबब टहनी के झुकने का ये दुनिया कब समझ पाई

 

मेरा उनसे बिछुड़ना और मिलना ख़्वाब था जैसे
लिपट कर रोई है, ताउम्र मुझसे मेरी तनहाई

 

अजब फ़नकार है, गढ़ता है शक्लें सैकड़ों हर दिन
मगर सूरत कभी कोई किसी से कब है टकराई

 

किसी के मानने, ना मानने से कुछ नहीं होता
उसी का नूर है सब में, उसी की सब में रानाई

ख़ुद को अपने से अलग कर, जब कभी सोचूँ हूँ मैं

June 26th, 2014

ख़ुद को अपने से अलग कर, जब कभी सोचूँ हूँ मैं
दूर तक, बस दूर तक बिखरा हुआ पाऊँ हूँ मैं

 

लम्हा-लम्हा फूटता है, मुझमें इक ज्वालामुखी
अपने एहसासात की ही आँच में झुलसूँ हूँ मैं

 

हाँ वो सूरज है मगर मैं भी तो उससे कम नहीं
रोज़ निकलूँ हूँ सुबह को, शाम को डूबूँ हूँ मैं

 

मुझको ये मालूम है वो एक झोंका था मगर
कैसा पागल हूँ जो अब तक रास्ता देखूँ हूँ मैं

 

है बग़ावत शायरी, ख़ुद से हो या फिर वक़्त से
एक बाग़ी की तरह हर शे’र से जूझूँ हूँ मैं

था कभी गुलज़ार, अब बंजर हूँ मैं

June 26th, 2014

था कभी गुलज़ार, अब बंजर हूँ मैं
इक पुरानी क़ब्र का पत्थर हूँ मैं

 

क़तरे-क़तरे के लिये भटका हूँ पर
लोग ये कहते हैं कि सागर हूँ मैं

 

अब तो तनहाई भी है, तन्हा भी हूँ
अब तो पहले से बहुत बेहतर हूँ मैं

 

टूटते पत्ते ने ये रुत से कहा
आनेवाली नस्ल का रहबर हूँ मैं

 

हैं जुदा बस नाम, दोनों एक हैं
आप मुझमें, आपके भीतर हूँ मैं

 

अश्क ने पलकों से हँसकर ये कहा
कसमसाती याद का झूमर हूँ मैं

जब ख़ुद को तनहा पाएँगे, याद तुम्हारी आएगी

June 26th, 2014

जब ख़ुद को तनहा पाएँगे, याद तुम्हारी आएगी
सुधियों की साँकल खोलेंगे, याद तुम्हारी आएगी

 

मन के आंगन से पुरवा के मादक झोंके चुपके से
आँख बचाकर जब गुज़रेंगे, याद तुम्हारी आएगी

 

हर सावन में नैन हमारे टूट-टूटकर बरसेंगे
घर-पर्वत जंगल डूबेंगे, याद तुम्हारी आएगी

 

दिन-भर हम मशगूल रहेंगे दुनियादारी में लेकिन
सांझ ढले जब घर लौटेंगे, याद तुम्हारी आएगी

 

जितने दिन लेकर आए हैं, उतने दिन तो जीना है
किन्तु कलेण्डर जब बदलेंगे, याद तुम्हारी आएगी

रात भर रोई है, तड़पी है नदी

June 26th, 2014

रात भर रोई है, तड़पी है नदी
याद सागर की उसे आती रही

 

दर्द से हम हैं, कि हमसे दर्द है
यह पहेली है अभी उलझी हुई

 

जब भी देखा, अजनबी ख़ुद को लगा
आइने में है या मुझमें है कमी

 

चांदनी है क्या ये उनसे पूछिए
जिनकी आँखों में नहीं है रोशनी

 

स्वप्न हो जैसे दुशासन, आँख में
नींद, ज्यों इनमें घिरी हो द्रौपदी

 

इस हथेली पर लिखो अब गीत तुम
मेट दी है हमने रेखा भाग्य की

कुछ न कुछ तो उसके मेरे दरमियाँ बाक़ी रहा

June 26th, 2014

कुछ न कुछ तो उसके मेरे दरमियाँ बाक़ी रहा
चोट बेशक भर गई लेकिन निशां बाक़ी रहा

 

गाँव भर की धूप को हँसकर उठा लेता था जो
कट गया पीपल वही तो क्या वहाँ बाक़ी रहा

 

आग से बस्ती जला डाली मगर हैरत है ये
किस तरह बस्ती में मुखिया का मकां बाक़ी रहा

 

ख़ुश न हो उपलब्धियों पर यह भी तो पड़ताल कर
नाम है, शोहरत भी है, पर तू कहाँ बाक़ी रहा

 

वक्त क़ी इस धुँध में सारे सिकन्दर खो गए
ये ज़मीं बाक़ी रही, ये आसमां बाक़ी रहा

हमने ऐसा हादिसा पहले कभी देखा न था

June 26th, 2014

हमने ऐसा हादिसा पहले कभी देखा न था
पेड़ थे पेड़ों पे लेकिन एक भी पत्ता न था

 

ख़ुशनसीबों के यहाँ जलते थे मिट्टी के चिराग़
था अंधेरा किन्तु तब इतना अधिक गहरा न था

 

तिर रही थी मछलियों की सैकड़ों लाशें मगर
जाल मछुआरों ने नदिया में कोई फेंका न था

 

आदमी तो आदमी था साँप भी इक बार को
दूध जिसका पी लिया उसको कभी डसता न था

 

ख़ून अपना ही हमें पानी लगेगा एक दिन
प्यास अपनी इस क़दर बढ़ जाएगी सोचा न था